अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद को 'ऑपरेशन सिंदूर' पर की गई एक सोशल मीडिया पोस्ट के चलते गिरफ़्तार किया गया था.
इस पोस्ट में उन्होंने कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी समेत दूसरी महिला अधिकारी की सराहना की, लेकिन साथ ही मॉब लिंचिंग और सांप्रदायिक तनाव जैसे मुद्दों पर भी टिप्पणी की थी.
हरियाणा पुलिस और महिला आयोग ने इस पोस्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा और सामाजिक अशांति को बढ़ावा देने वाला बताया. प्रोफ़ेसर पर भारतीय न्याय संहिता की गंभीर धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अंतरिम ज़मानत दी, लेकिन साथ में कुछ सख़्त शर्तें भी लगाईं और उनका पासपोर्ट जमा करने का आदेश भी दिया.
यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, अकादमिक स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के संतुलन को लेकर बहस का केंद्र बन गया है. एक पक्ष का मानना है कि संवेदनशील समय में सार्वजनिक बयानों में सावधानी ज़रूरी है, जबकि दूसरा पक्ष इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अकादमिक आज़ादी पर हमला मान रहा है.
इस मामले में अंतरिम ज़मानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट की ओर से की गई टिप्पणियों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके दायरे, आलोचना की स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के विषयों, शिक्षकों या जानी-मानी हस्तियों की व्यक्तिगत टिप्पणियों और उसके व्यापक असर पर अब सवाल उठ रहे हैं.
साथ ही, अशोका यूनिवर्सिटी के रुख़ पर भी सवाल उठ रहे हैं कि उसने अपने प्रोफ़ेसर के साथ क्या रुख़ अपनाया और इस पूरे मामले में उसकी भूमिका क्या रही.
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, 'द लेंस' में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन्हीं सब सवालों पर चर्चा की.
इन सवालों पर चर्चा के लिए वरिष्ठ वकील और वैधानिक मामलों पर लगातार लिखने वाले विराग गुप्ता, दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व डीन प्रोफ़ेसर अनीता रामपाल और बीबीसी के वैधानिक मामलों के संवाददाता उमंग पोद्दार शामिल हुए.

बीती आठ मई को प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया था. इस पोस्ट में उन्होंने कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को प्रेस ब्रीफ़िंग में भेजे जाने को लेकर लिखा था.
इसके अलावा प्रोफ़ेसर अली ख़ान ने अपनी पोस्ट में भारत-पाकिस्तान संघर्ष और 'युद्ध की मांग' करने वालों की भावनाओं को लेकर भी लिखा और युद्ध के नुक़सान बताए.
हरियाणा राज्य महिला आयोग ने उनके इस पोस्ट का स्वतः संज्ञान लेते हुए उन्हें 12 मई को समन जारी किया.
कुछ दिनों तक मामला चलने के बाद, शिकायत के आधार पर 18 मई को हरियाणा पुलिस ने प्रोफे़सर अली ख़ान महमूदाबाद को गिरफ़्तार किया.
महमूदाबाद की गिरफ़्तारी पर दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व डीन प्रोफ़ेसर अनीता रामपाल ने कहा कि यह एक गंभीर मुद्दा बन गया है.
उन्होंने बताया कि जिस पोस्ट की बात हो रही है, वह सभी ने पढ़ी है और उसमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे सुरक्षा को ख़तरा हो या किसी का अपमान हो.
उन्होंने कहा कि यह मामला जानबूझकर बनाया गया है और जिसने भी इसे उठाया है, चाहे वह वाइस चांसलर हों या कोई और उन्होंने शायद किसी सत्ता को ख़ुश करने के लिए ऐसा किया है.
प्रोफ़ेसर अनीता ने बताया, "न छात्रों को और न ही शिक्षकों को उस पोस्ट में कोई आपत्तिजनक बात लगी. एक पोस्ट के आधार पर राष्ट्रीय और राज्य महिला आयोग का इस तरह से कार्रवाई करना और तुरंत गिरफ्तारी हो जाना, यह एक पूरा प्लान दिख रहा है."
उन्होंने कहा, "एक योजना के अंतर्गत ये सब हुआ है. ये ऐसा नहीं है कि कोई दो फे़सबुक पोस्ट पढ़ के इतना बड़ा मुद्दा बन गया."
इस मुद्दे पर बात करते हुए बीबीसी संवाददाता उमंग पोद्दार ने कहा कि जब कोई राजनीतिक या ऐसे बयान दिए जाते हैं जो सरकार के ख़िलाफ़ हो, तो पुलिस अक्सर तुरंत कार्रवाई करती है और लोगों को गिरफ़्तार कर लेती है.
क्या अब आम लोगों को कुछ बोलने से डरना चाहिए?महमूदाबाद के ख़िलाफ़ पुलिस में दो एफ़आईआर, यानी शिकायत दर्ज हैं. दोनों शिकायतों में 'भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को ख़तरे में डालने' और 'दो समुदायों के बीच दुश्मनी बढ़ाने' से जुड़ी धाराएँ लगाई गई हैं.
इसके अलावा उन पर किसी 'महिला की लज्जा भंग करने' और 'धर्म का अपमान करने' के भी आरोप हैं. ये सारी धाराएँ भारतीय न्याय संहिता के तहत लगाई गई हैं.
देश में हर रोज़ करोड़ों लोग सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लिखते हैं. कई पोस्ट सरकार के पक्ष में लिखी जाती हैं तो कई विरोध में.
अब ऐसे में सवाल उठने लगा है कि क्या हमें सोशल मीडिया पर कुछ लिखते समय डरने की ज़रूरत है?
इस सवाल पर एडवोकेट विराग गुप्ता ने कहा कि किसी लेखक, पत्रकार या प्रोफे़सर को सिर्फ़ लिखने के लिए गिरफ़्तार किया जाना ग़लत है.
उन्होंने कहा, "यह संविधान की 75वीं वर्षगांठ का समय है और डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था कि संविधान कैसा है, यह नहीं, बल्कि उसे चलाने वाले लोग कैसे हैं, यह महत्वपूर्ण है."
उन्होंने कहा, "इस घटना से यह देखने की ज़रूरत है कि संविधान चलाने वाले लोग कैसा काम कर रहे हैं."
विराग गुप्ता के मुताबिक़, "कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, ट्रायल कोर्ट, पुलिस, मंत्री, सरकार और महिला आयोग सभी इस मुद्दे में शामिल हैं, और जो कुछ हो रहा है वह संविधान के नाम पर तमाशा है."
उन्होंने कहा कि 'आपत्तिजनक' और 'आपराधिक' के बीच बड़ा अंतर है, और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तीनों संस्थाएं उस ग़लत को रोकने में विफल रहीं.
विराग के मुताबिक़, "पुलिस ने ग़लत एफ़आईआर दर्ज की, सुप्रीम कोर्ट को यह मामला सीधे निरस्त कर देना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अंतरिम ज़मानत देकर मामला लंबा खींचा गया."
उन्होंने कहा कि 'कहीं न कहीं क़ानून और संविधान के मुताबिक़ चीज़ें सही नहीं हो रही हैं.'
इस मामले पर प्रोफ़ेसर अनीता रामपाल ने कहा कि यह कोई अपराध था ही नहीं.
उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत किसी को यह साबित करने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि वह निर्दोष है या नहीं.
उन्होंने एसआईटी गठन पर भी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह क़दम बेहद आपत्तिजनक है.
उन्होंने कहा, "हमें समाज को गहराई से देखने, समीक्षा करने और न्याय के बारे में सोचने की ज़रूरत है. यही हमारा संविधान सिखाता है और यही शिक्षा का उद्देश्य है, चाहे हम कक्षा में हों या बाहर."

कोर्ट का कहना था कि प्रोफ़ेसर अली ख़ान के लेख का पूरा मतलब समझने के लिए सीनियर पुलिस अफ़सरों की एक एसआईटी की ज़रूरत है.
जिसके बाद आलोचकों ने सवाल उठाया कि अगर पोस्ट में कोई आपत्तिजनक बात थी, तो वह पढ़ते ही उस समय क्यों समझ में नहीं आई?
इस मुद्दे पर बीबीसी संवाददाता उमंग पोद्दार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर दो मुख्य स्तरों पर आलोचना हो रही है.
उन्होंने कहा कि पहला विवाद इस बात पर है कि कोर्ट ने ज़मानत देते समय कुछ शर्तें रखीं, जैसे पासपोर्ट ज़ब्त करने और यह निर्देश देना कि संबंधित व्यक्ति भविष्य में पहलगाम या भारत पाकिस्तान संबंधों पर टिप्पणी न करें.
पोद्दार के मुताबिक़, आलोचना इस बात की हो रही है कि अगर किसी ने पहले कुछ लिखा है, तो उसे आगे बोलने से किस आधार पर रोका जा सकता है. दूसरा विवाद कोर्ट की सुनवाई के दौरान की गई टिप्पणियों को लेकर है.
उमंग पोद्दार ने कहा कि जब कपिल सिब्बल ने दोनों फे़सबुक पोस्ट पढ़कर सुनाए, तो जजों ने कहा कि यह "अकेडमिक लैंग्वेज" है और इसे तीन सीनियर पुलिस अफ़सरों को पढ़ना होगा ताकि वे इसका असली मतलब समझ सकें.
उन्होंने बताया कि "कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि यह पोस्ट 'डॉग व्हिस्लिंग' हो सकती है या 'चीप पब्लिसिटी स्टंट' भी. इसी को लेकर आलोचना हो रही है कि अगर जजों ने खुद पोस्ट पढ़कर तुरंत कोई आपत्तिजनक बात नहीं पहचानी, तो पुलिस अफ़सरों से इसका असली मतलब समझने की अपेक्षा क्यों रखी जा रही है."
उमंग पोद्दार ने कहा, "इस तरह के मामलों में आमतौर पर यह देखा जाता है कि एक रीज़नेबल पर्सन पर उस बयान का क्या असर होगा."
गिरफ़्तारी पर क्यों उठे सवाल?प्रोफ़ेसर अली ख़ान महमूदाबाद की गिरफ़्तारी के बाद सोशल मीडिया पर कई जाने-माने लोगों ने सवाल खड़े किए हैं.
लोगों का मानना है कि उनके पोस्ट में कोई ऐसी बात नहीं थी जिसके लिए उन्हें गिरफ़्तार किया जाए.
इस पर एडवोकेट विराग गुप्ता ने कहा कि जिस मामले में सज़ा सात साल से कम की हो, उसमें गिरफ़्तारी से पहले सीआरपीसी की धारा 41 के तहत नोटिस देना ज़रूरी होता है, जो इस मामले में नहीं दिया गया.
विराग ने यह भी सवाल उठाया कि इस तरह के मामले की जांच एसआईटी और तीन आईपीएस अधिकारियों से क्यों करवाई जा रही है.
विराग गुप्ता ने कहा, "देश में सियासत के अखाड़े में क़ानून शहीद हो रहा है. कभी एक पक्ष को राहत मिलती है, कभी दूसरे को, लेकिन अंत में हार क़ानून की होती है, और इस मामले में भी वही हुआ है.
उन्होंने यह भी चिंता जताई कि हर ज़मानत के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक जाना क्यों पड़ता है.
उन्होंने सवाल किया, "सुप्रीम कोर्ट में वही मामले जल्दी सुने जाते हैं जिनमें वरिष्ठ वकील पेश होते हैं. फिर हम बोलते हैं कि नहीं हमें वीआईपी जस्टिस नहीं चाहिए, लेकिन असल में क़ानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है और उसे संस्थागत मान्यता मिल रही है, जो बेहद चिंताजनक है."
विराग गुप्ता ने कहा, "भारत में लगभग 60 करोड़ लोग सोशल मीडिया पर हैं और कम से कम 20 करोड़ लोग प्रतिदिन आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं, पोस्ट करते हैं, हेट स्पीच देते हैं, पोर्नोग्राफ़ी करते हैं, महिलाओं का अपमान करते हैं, धार्मिक वैमनस्यता फैलाते हैं, सुप्रीम कोर्ट का निरादर करते हैं, तो क्या उन सबके ख़िलाफ़ हम सिडीशन का केस फाइल करेंगे? और क्या हमारा सिस्टम इतनी बड़ी संख्या में मामलों को संभालने में सक्षम है?"
दूसरी तरफ़, मध्य प्रदेश में बीजेपी के मंत्री विजय शाह ने कर्नल सोफ़िया क़ुरैशी पर 12 मई को एक टिप्पणी की थी. इस टिप्पणी पर काफ़ी विवाद हुआ.
लेकिन, मध्य प्रदेश पुलिस ने ख़ुद इस पर कोई कार्रवाई नहीं की. इस टिप्पणी पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने विजय शाह को फटकार लगाई.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 14 मई को इस मामले का स्वत: संज्ञान लेते हुए राज्य के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था.
इसके बाद, 15 मई को हाई कोर्ट ने पुलिस द्वारा दायर की गई एफ़आईआर की आलोचना की. कोर्ट ने कहा था कि मध्य प्रदेश पुलिस ने बहुत कमज़ोर एफ़आईआर दायर की है.
अब ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सभी के लिए क़ानून एक बराबर है?
इस पर उमंग पोद्दार ने कहा कि मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के मामले में, उनकी स्पीच के बाद पुलिस ने स्वतः कोई कार्रवाई नहीं की. हाईकोर्ट के आदेश पर एफ़आईआर दर्ज की गई, जिसके ख़िलाफ़ विजय शाह सुप्रीम कोर्ट गए.
उमंग पोद्दार ने दोनों मामलों की तुलना करते हुए कहा कि प्रोफे़सर अली ख़ान महमूदाबाद के मामले में पुलिस ने बेहद तेज़ी से कार्रवाई करते हुए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. लेकिन विजय शाह के मामले में एफ़आईआर दर्ज करने में ना सिर्फ़ देर हुई, बल्कि कोर्ट ने दर्ज एफ़आईआर की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाया.
इस पर एडवोकेट विराग गुप्ता ने कहा, "अगर मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह ने सख़्त और विवादित बयान देने के बावजूद न इस्तीफ़ा दिया, न उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हुई, तो हम संवैधानिक देश के नाते कहाँ विफल हो रहे हैं, उस पर गंभीर चर्चा की ज़रूरत है."
उन्होंने कहा, "मध्य प्रदेश के मामले में साफ़ देखा जा सकता है कि सिस्टम कैसे ढह गया. एक मंत्री की ओर से आपत्तिजनक बयान देने के बावजूद पुलिस ने कोई अपराध दर्ज नहीं किया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पुलिस और नेताओं का चोली दामन का साथ है. पुलिस नेताओं के इशारे पर काम करती है. ये पूरी समस्या की जड़ है."
गुप्ता ने कहा, "इस पूरी प्रक्रिया में आईपीसी, सीआरपीसी और संविधान का शासन कमज़ोर पड़ा है. इसमें मंत्री, पुलिस, ट्रायल कोर्ट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज सभी की भूमिका रही है."
उन्होंने कहा कि इस मामले को धर्म के नज़रिए से नहीं, बल्कि संवैधानिक विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए.
महमूदाबाद की गिरफ़्तारी धर्म के आधार पर हुई?
इस सवाल पर दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व डीन प्रोफेसर अनीता रामपाल ने कहा, "मैं बिल्कुल इस नज़रिए से देखती हूं. हाल ही में समीना दलवई के साथ भी ऐसा ही हुआ था, जहां राज्य महिला आयोग ने तुरंत आरोप लगाया कि उन्होंने मॉडेस्टी ऑफ़ वीमेन का उल्लंघन किया है, जबकि वह एक अकादमिक चर्चा थी."
अनीता रामपाल ने अशोका विश्वविद्यालय के रुख़ को "बहुत ही अजीब और बहुत ख़राब" बताया.
उन्होंने कहा कि जब विश्वविद्यालय कहता है कि वह जांच में पूरी तरह सहयोग करेगा, तो यह पहले से ही मान लेने जैसा है कि कोई अपराध हुआ है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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