27 अक्तूबर 1947 को उगने वाला सूरज कश्मीर की घाटी की धुंध को पछाड़ चुका था. तब दिल्ली के विलिंगडन एयरफ़ील्ड से एक डकोटा जहाज़ साढ़े तीन घंटे की उड़ान भरने के बाद पंद्रह हथियारबंद सैनिकों को लेकर श्रीनगर के पास बडगाम एयरबेस पर उतरा.
सुबह साढ़े नौ बजे सिख रेजीमेंट की पहली बटालियन के इन अधिकारियों का बडगाम एयरबेस पर आना इस बात का ऐलान था कि भारत ने शाही रियासत यानी जम्मू कश्मीर में अपनी फ़ौज उतार दी है.
एलिस्टेयर लैंब अपनी किताब 'बर्थ ऑफ़ अ ट्रेजेडी: कश्मीर 1947' में लिखते हैं कि यह पाकिस्तान और भारत के बीच उस विवाद की औपचारिक शुरुआत थी जो आज तक जारी है.
15 अगस्त की डेडलाइन के बाद दो महीने से ज़्यादा समय तक महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर रियासत के भविष्य का कोई फ़ैसला नहीं किया था.
इतिहासकार एलेक्ज़ेंडर रोज़ के अनुसार इस मुस्लिम बहुल इलाक़े (कश्मीर) के भौगोलिक और धार्मिक वजहों से पाकिस्तान का हिस्सा बनने की मज़बूत संभावनाएं थीं.
इस बारे में भारत का कहना है कि उसने कश्मीर में अपनी सेना 22 अक्तूबर को पाकिस्तानी क़बायलियों के कश्मीर पर हमले और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह की मदद के अनुरोध पर तब भेजी जब महाराजा ने भारत में विलय के काग़ज़ात पर दस्तख़त कर दिए.
भारत के उस समय के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने शाही रियासतों को भारत में शामिल करने का काम वीपी मेनन को सौंपा था.
वीपी मेनन अपनी किताब 'द स्टोरी ऑफ़ इंटीग्रेशन ऑफ़ इंडियन स्टेट्स' में दावा करते हैं कि 200 से 300 लॉरियों में सवार लगभग पांच हज़ार की सदस्यों के साथ एक छापामार दस्ता पाकिस्तान के प्रांत 'सरहद' (आज का ख़ैबर पख़्तूनख़्वा) के शहर ऐबटाबाद से झेलम वैली रोड से आगे बढ़ा.
इसमें आफ़रीदी, वज़ीर, महसूद, स्वाती और सरहद के क़बायलीऔर 'छुट्टी मना रहे' पाकिस्तानी फ़ौज के सिपाही शामिल थे. इसका नेतृत्व कश्मीर को अच्छी तरह जानने वाले कुछ सैनिक अधिकारी कर रहे थे.
एंड्र्यू व्हाइटहेड ने उन क़बायलियों के हमले पर अपनी किताब 'मिशन इन कश्मीर' में काफ़ी विस्तार से लिखा है लेकिन इसमें पाकिस्तानी सेना के शामिल होने का ज़िक्र नहीं है.
वज़ीर क़बायल में 'फ़क़ीर ऑफ़ एप्पी' ने अपने मानने वालों को 'जिहाद' के लिए कश्मीर जाने से रोका तो 'पीर ऑफ़ वाना' ने अपने अनुयायियों की सेवा पेश की ताकि ''वह पाकिस्तान के साथ मिलकर इस्लाम के इतिहास की इस अहम घड़ी में सक्रिय हों.''
'बग़दादी पीर' कहलाने वाले पीर ऑफ़ वाना ने पेशावर में 'न्यूयॉर्क हेरल्ड ट्रिब्यून' की मार्ग्रेट पार्टन को इंटरव्यू में बताया था कि अगर कश्मीर भारत का हिस्सा बना तो वह दस लाख क़बायलियों को जिहाद के लिए कश्मीर लेकर जाएंगे.
उन्होंने यह भी कहा था कि अगर ''हमें पाकिस्तान की तरफ से जाने की इजाज़त न दी गई तो हम चित्राल के पहाड़ों से उत्तर की तरफ़ जाएंगे.''
''हम अपनी रायफ़लों और बंदूक़ों के साथ जाएंगे और अपने मुसलमान भाइयों को हिंदू महाराजा की मनमानी से बचाएंगे.''
'बिनी बड़े प्रतिरोध के कश्मीर में घुसे'इसी तरह 'पीर ऑफ़ मानकी शरीफ़' भी ‘कश्मीर में जिहाद’ के समर्थक थे. वह मुस्लिम लीग के स्थानीय नेता थे और सरहद प्रांत के पाकिस्तान में विलय का जनमत संग्रह जितवाने में उनकी बड़ी भूमिका थी.
उनके लगभग दो लाख पैरोकार थे और यह किसी एक ख़ास इलाक़े तक सीमित नहीं थे.
व्हाइटहेड लिखते हैं कि इस बग़ावत को पाकिस्तान के इलाक़े से चलाया जा रहा था लेकिन नए देश पाकिस्तान के नेता अपने सशस्त्र सैनिकों से उन्हें मदद नहीं दे सकते थे.
सर जॉर्ज कनिंघम सरहद प्रांत के गवर्नर थे. ब्रिटिश लाइब्रेरी में कनिंघम की डायरी इस बढ़ती हुई जागरूकता का एक शक्तिशाली एहसास कराती है.
उन्होंने लिखा है, "मैंने आफ़रीदियों और महमंदों समेत हर किसी को सावधान किया है कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध का कारण बन सकता है."
लेकिन कनिंघम की इस चेतावनी का कोई असर नहीं हुआ. सरहद के मुख्यमंत्री ख़ान अब्दुल क़य्यूम ख़ान ने निजी तौर पर ऐलान किया कि वह कश्मीर जाने वाले सशस्त्र लोगों का समर्थन करते हैं लेकिन वह इस बात पर सहमत थे कि पुलिस और दूसरे अधिकारियों को ऑपरेशन में नहीं उलझना चाहिए.
मुस्लिम नेशनल गार्ड के सदस्य ख़ुर्शीद अनवर लिखते हैं कि 'डी डे' 21 अक्तूबर , मंगलवार तय किया गया लेकिन इसे अगली सुबह तक टालना पड़ा. कई ऐतिहासिक विवरणों में ख़ुर्शीद अनवर को कश्मीर घाटी पर हमले का फ़ौजी कमांडर बताया गया है.
बाद में उन्होंने डॉन अख़बार को बताया कि उनके साथ चार हज़ार आदमी थे और कश्मीरी इलाक़े के अंदर तक उन्हें किसी बड़े प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा.
दूसरी ओर कश्मीर की रियासती फ़ौज ने कुछ हद तक प्रतिरोध किया, उनके साथ पुंछ से संबंध रखने वाले मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा था जो उन्हें छोड़ चुके थे.
अलबत्ता व्हाइटहेड लिखते हैं कि महाराजा के ख़िलाफ़ शुरुआती बग़ावत स्थानीय थी और इसमें क़बायली बिल्कुल शामिल नहीं थे.
''अपनी मुस्लिम जनता के साथ सलूक की वजह से कश्मीर के महाराजा की छवि ख़राब थी… रियासत की सशस्त्र सेना पर जम्मू सूबे में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ज़ुल्म में शामिल होने का आरोप था.''
''सबसे बढ़कर यह कि महाराजा की ओर से यह फ़ैसला करने में देरी से, कि वह किसने देश में शामिल होंगे, वह शक मज़बूत हो गया था कि कश्मीर भारत का हिस्सा बनने की तरफ बढ़ रहा है. हालांकि उसका भूगोल और मुस्लिम बहुल होना यह बता रहा था कि उसका पाकिस्तान के साथ विलय होगा.''
वो लिखते हैं, ''जम्मू के उत्तर पश्चिम लेकिन कश्मीर घाटी से बाहर स्थित इलाक़े पुंछ की अपनी शिकायतें थीं, ख़ास तौर पर स्थानीय स्वायत्ता में कमी और भारी टैक्सों के ख़िलाफ़. यहां के लगभग साठ हज़ार लोग दूसरे विश्व युद्ध में भाग ले चुके थे और यहीं से कश्मीर की अपनी सेना में भर्ती होती थी. महाराजा के ख़िलाफ़ बग़ावत अगस्त 1947 के अंत तक जड़ पकड़ चुकी थी.''

व्हाइटहेड ने इस मुहिम के नेताओं में से एक के हवाले से लिखा है, ''सितंबर 1947 के अंत तक हम काफ़ी इलाक़ा जीत चुके थे. तब मैं ही अपने ज़िला पुंछ से इसका इंतज़ाम कर रहा था. तब रियासत की फ़ौज रियासत के लोगों के ख़िलाफ़ लड़ रही थी. सरहद से तब तक कोई नहीं आया था.''
पुंछ के नज़दीकी इलाक़े रावला कोट के सरदार मोहम्मद इब्राहिम ख़ान श्रीनगर में वकील थे और पाकिस्तान समर्थक मुस्लिम कॉन्फ़्रेंस के अहम नेता थे.
वह रियासत से निकले और पाकिस्तान में मरी में उन्होंने अपना ठिकाना बना लिया और महाराजा की फ़ौज से भागे फ़ौजियों की मदद से 'सशस्त्र संघर्ष' शुरू कर दिया.
व्हाइटहेड के दावों के अनुसार सितंबर 1947 के दौरान ब्रिगेडियर अकबर ख़ान ने, जो उस समय पाकिस्तानी सेना के हेडक्वार्टर में असलहे के डायरेक्टर थे, मरी में सरदार इब्राहिम ख़ान और दूसरे लोगों से संपर्क किया.
''ऐसा लगता है कि अकबर ख़ान ने पुंछ में पाकिस्तान समर्थक बग़ावत की मदद करने का फ़ैसला ख़ुद ही से किया. अकबर ख़ान का अपना कहना है कि उन्होंने पंजाब पुलिस को जारी करने के लिए मंज़ूर की गई चार हज़ार फ़ौजी राइफ़लें देने में मदद की. उन्होंने पुराने गोला बारूद की एक बड़ी खेप भी दी जिसे बेकार बताया जा चुका था और समुद्र में फेंका जाना था.''
अक्तूबर के अंत में सरदार इब्राहिम को पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की अस्थाई सरकार का सदर बनाया गया.
व्हाइटहेड कहते हैं कि हो सकता है कि दोनों ख़ान बग़ावत की शुरुआत के दावे पर सहमत न हों लेकिन इसमें सीमित स्तर पर ही क़बायलियों के शामिल होने की बात पर उनकी राय एक है.
अब्दुल क़य्यूम ख़ान के अनुसार इस आंदोलन को इसलिए नुक़सान पहुंचा क्योंकि वह क़बायली किसी के क़ाबू में नहीं थे.
''जब वह मेरे इलाक़े में आए तो उनके ठहरने के लिए एक पूरा गांव ख़ाली करवा दिया गया और उसके चारों तरफ़ पहरा लगा दिया गया. मैंने उन्हें लड़ाई में शामिल नहीं होने दिया. लेकिन बाक़ी रियासत में उन्होंने काफ़ी नुक़सान किया.''
''असंगठित होने की वजह से उन्होंने लूट मार की. हर क़बीले का अपना-अपना कमांडर था. वज़ीर और महमंद तो बिल्कुल किसी के कहने सुनने में नहीं थे. मुज़फ़्फ़राबाद में तो उनके और मेरे बीच फ़ायरिंग भी हुई.''
क़बायलियों ने शुरू में यह सोचा होगा कि वह मुज़फ़्फ़राबाद से लगभग 100 मील की दूरी पर अपना लक्ष्य यानी कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में 26 अक्तूबर को ईद का त्योहार मना सकेंगे.
व्हाइटहेड लिखते हैं कि बारामूला में उनकी कार्रवाई ख़त्म नहीं हुई थी. यहां तक कि 27 अक्तूबर के बाद से हर दिन भारतीय सेना के सैंकड़ों फ़ौजियों के जहाज़ से आने के बावजूद क़बायली श्रीनगर के केंद्र से कुछ मील की दूरी पर और लगभग हवाई पट्टी के चारों तरफ़ पहुंचने में कामयाब हो गए.
अकबर ख़ान ने अपनी किताब 'रीडर्स इन कश्मीर' में लिखा है कि उन्होंने क़बायलियों को सबसे पहले कश्मीर की घाटी में गहरी धुंध से निकलते देखा.
''वह चुपचाप आगे बढ़े, ध्यान से लेकिन आसानी के साथ और अंधेरे में. यह 19 अक्टूबर 1947 की आधी रात थी. बिजली की रफ़्तार से रियासत में आने के बाद पांच दिनों में 115 मील का फ़ासला तय करके अब श्रीनगर की टिमटिमाती रौशनियों से केवल चार मील के फ़ासले पर थे.''
''जैसे-जैसे हमलावर आगे बढ़े उनका सामना श्रीनगर के अगल-बगल बहने वाले पानी से होना शुरू हो गया. अंत में ऐसा लगता था कि इस रूकावट से निपटने के लिए सीधे रास्ते पर जाना ही एक उपाय बच गया है.''
सरदार इब्राहिम का कहना था कि उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह लड़ें और क़ब्ज़ा करें और फिर संभाले रहें (यानी जीते हुए इलाक़े पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखें). जब क़बायली लश्कर ने श्रीनगर से वापसी की तो उनके खाली किए गए इलाक़े को संभालने के लिए कोई फ़ौजी नहीं था.”
''भारत की सेना के अधिकारी शुरू में तो जहाज़ों से आए थे. पाकिस्तान के साथ जंग हुई तो और कुमक गुरदासपुर से आने लगी.''
इतिहासकार एलेग्ज़ेंडर रोज़ के अनुसार कश्मीर, पाकिस्तान और भारत के दक्षिण में स्थित 14 लाख की आबादी वाला मुस्लिम इलाक़ा, भौगोलिक और धार्मिक दोनों लिहाज से पाकिस्तान को मिलना था.
लेकिन भारत के विभाजन के समय सीमाओं के निर्धारण के ज़िम्मेदार सर सिरिल रेडक्लिफ़ ने केवल शकरगढ़ तहसील पाकिस्तान को दी और बाक़ी तहसीलें भारत को दे दीं. पठानकोट की तहसील मिली तो भारत को कश्मीर का ज़मीनी रास्ता मिल गया.
भारत के ज़िला गुरदासपुर के डिप्टी कमिश्नर के अदालती कमरे में लगे लकड़ी के बोर्ड पर उन अफ़सरों की लिस्ट देखें जो यहां साल 1852 से साल 1947 तक तैनात रहे तो उनमें सबसे कम समय तक मुश्ताक़ अहमद चीमा का नाम है.
वह चुनाया लाल के यहां डिप्टी कमिश्नर बनने से पहले केवल तीन दिन के लिए तैनात हुए यानी 17 अगस्त को पाकिस्तान जाने से पहले तक.
इस संक्षिप्त तैनाती की वजह बताते हुए पत्रकार जुपिंदरजीत सिंह अख़बार 'ट्रिब्यून इंडिया' में लिखते हैं कि 17 अगस्त 1947 तक यह समझा जाता था कि पंजाब का यह मुस्लिम बहुल ज़िला पाकिस्तान की सीमा में जाएगा.
ब्रितानी राज में ज़िला गुरदासपुर लाहौर डिवीज़न का हिस्सा था, अपनी चार तहसीलों यानी गुरदासपुर, बटाला, शकरगढ़ और पठानकोट के साथ.
डोमिनिक लैपीएर और लैरी कॉलिन्स ने अपनी किताब 'फ़्रीडम एट मिडनाइट' में लिखा है कि गुरदासपुर के बिना भारत को कश्मीर तक काम के लायक ज़मीनी रास्ता नहीं मिलता.
अमेरिकी पत्रिका 'द नेशनल इंटरेस्ट' के लिए अपने लेख ‘पैराडाइज़ लॉस्ट: दी ऑर्डील ऑफ़ कश्मीर’ में एलेग्ज़ेंडर रोज़ लिखते हैं कि रेडक्लिफ़ ने बाद में बताया कि रेलवे, संचार और पानी की व्यवस्था में परेशानी जैसी बातें थीं जिनसे इसके पास की बहुसंख्यक आबादी के बुनियादी दावों को नुक़सान पहुंचता.
''लेकिन पाकिस्तान ने महसूस किया कि नेहरू ने माउंटबेटन को इस बात के लिए तैयार कर लिया है कि वह हदबंदी बदलने के लिए रेडक्लिफ़ पर दबाव डालें.''
रोज़ के अनुसार सन 1992 में विभाजन की प्रक्रिया की गहरी जानकारी रखने वाले आख़िरी ब्रितानी अधिकारी क्रिस्टोफ़र बेवमोंट (रेडक्लिफ़ के प्राइवेट सेक्रेटरी) ने बताया था कि रेडक्लिफ़ ने असल में पाकिस्तान को दो सटी हुई तहसीलें दी थीं लेकिन दोपहर के खाने पर माउंटबेटन ने रेडक्लिफ़ अवार्ड को बदलवा लिया.
रोज़ के अनुसार भारत का कहना है कि उसकी सेना तब तक सक्रिय नहीं हुई जब तक दिल्ली की तेज़ी से हस्तक्षेप की क़ीमत के तौर पर महाराजा ने ख़ुद ही विलय की दस्तावेज़ पर दस्तख़त नहीं किया.
27 अक्तूबर को जैसे ही हवाई जहाज़ के ज़रिए फ़ौजी दस्ते श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरे और 'लूटमार करने वालों को हराने के लिए' आगे बढ़े, माउंटबेटन ने औपचारिक तौर पर महाराजा के फ़ैसले को स्वीकार कर लिया और कश्मीर औपचारिक तौर पर भारत का हिस्सा बन गया.
''लेकिन पाकिस्तानी पूछते हैं कि हरि सिंह 26 अक्टूबर को उस दस्तावेज़ पर कैसे दस्तख़त कर सकते थे जबकि यह मालूम है कि वह उस दिन श्रीनगर से मोटरकेड के ज़रिए जम्मू की तरफ सफ़र कर रहे थे और इसी वजह से उनसे कोई संपर्क नहीं था.''
''इसलिए ऐसा लगता है कि भारतीय सैनिक दस्ते दस्तावेज़ पर दस्तख़त और उसे क़बूल करवाने से पहले ही कश्मीर की ओर जा रहे थे जिससे पता चलता है कि महाराजा की रज़ामंदी दबाव के तहत हासिल की गई थी.''
व्हाइटहेड और प्रेम शंकर झा जैसे लेखक विलय पर शक जताते हैं.
माउंटबेटन के विलय की दस्तावेज़ को क़बूल करने वाले ख़त में कहा गया, ''मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में अमन और शांति बहाल हो जाए और इसकी धरती को हमलावरों से पवित्र कर दिया जाए, यहां के लोग रियासत के विलय का सवाल तय कर दें.''
जंग बंद होने के बाद कश्मीरियों के जनमत संग्रह के अधिकार के पक्ष में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अलावा नेहरू ने भी एक से ज़्यादा बार जनमत संग्रह की इच्छा का ऐलान किया.
रोज़ लिखते हैं कि शुरू में भारत इस तरह के जनमत संग्रह के लिए तैयार था लेकिन फिर उसने इस विचार को दरकिनार कर दिया जब उसे यह महसूस हुआ कि ग़ैर हिंदू बहुल इलाक़े का इसके पक्ष में वोट देने की कोई संभावना नहीं है.
अपनी किताब 'अंडरस्टैंडिंग कश्मीर ऐंड कश्मीरीज़' में क्रिस्टोफ़र स्नेडन लिखते हैं कि 26 अक्तूबर 1947 के बाद हरि सिंह तेज़ी से भारत, भारतीय जम्मू कश्मीर प्रशासन और अपनी (पूर्व) रियासत के विवाद में महत्व खोने लगे थे.
शायद ऐसी ही स्थिति क़बायलियों की थी जो व्हाइटहेड के अनुसार 27 अक्तूबर के बाद से हर दिन भारतीय सेना के सैकड़ों सैनिकों को हवाई जहाज़ से भेजने के बावजूद श्रीनगर के मध्य से कुछ मील की दूरी पर और लगभग हवाई पट्टी के चारों तरफ़ पहुंचने में कामयाब हो गए थे.
कश्मीर घाटी से इन छापामारों को निकालने के लिए एक माह बाद मुस्लिम नेशनल गार्ड के सदस्य ख़ुर्शीद अनवर कराची के एक अस्पताल में अपने ज़ख़्मों का इलाज करवा रहे थे.
उन्होंने डॉन अख़बार से बात करते हुए शिकायत की कि पाकिस्तान सरकार की निष्क्रियता कश्मीर में उनके लिए रुकावट बनी.
एंड्र्यू व्हाइटहेड ने लिखा है कि वह (ख़ुर्शीद अनवर) श्रीनगर पर क़ब्ज़ा करने की साहसिक कोशिश में क़बायलियों की कोई मदद न करने पर पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ बहुत तल्ख़ी से बात कर रहे थे.
ख़ुर्शीद अनवर ने बाद में कराची में क़बायली सेना की गंभीर लापरवाही के बारे में भी सरहद के एक ब्रितानी विशेषज्ञ से बात की थी. ''वह महसूद क़बीले के ख़िलाफ़ बहुत तल्ख़ थे जो उनके अनुसार भयानक अत्याचारों और शुरुआती हमले में घातक देरी, दोनों के ज़िम्मेदार थे.''
स्नेडन लिखते हैं, ''पख़्तून अच्छे लड़ाके थे लेकिन साथ-साथ वह बेहद असंगठित भी थे.''
''22 अक्तूबर 1947 को जम्मू कश्मीर में दाख़िल होने के तुरंत बाद उन्होंने (क़बायलियों ने) श्रीनगर पर क़ब्ज़ा करने के लिए सीधे हमला करने की बजाय लूटमार और हत्या की. कई विदेशी भी इसका शिकार हुए जिसकी वजह से अंतरराष्ट्रीय अख़बारों में रिपोर्टिंग को भारत ने अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया.''
''जब पख़्तून आख़िर में 27-28 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर के आसपास पहुंचे तो भारतीय सेना श्रीनगर के हवाई अड्डे को सुरक्षित बना चुकी थी और दूसरे सैनिकों के आने तक पख़्तूनों को रोकने के लिए रक्षात्मक मोर्चे बना चुकी थी.''
''भारतीय सैनिकों का शुरुआती मक़सद श्रीनगर के हवाई अड्डे को सुरक्षित बनाना और आगे बढ़ते हुए पख़्तूनों से बचाना था. उन्होंने दोनों मक़सद हासिल किए…श्रीनगर में भारतीय सिपाहियों के तेज़ी से पहुंचने और उनके शहर को सुरक्षित कर लेने से धीमी गति से चल रहे और लूटमार में लगे रहे पख़्तूनों की कोशिशें नाकाम हो गईं.''
स्नेडन के अनुसार आने वाले दिनों में भारत हवाई बमबारी की मदद से अपने पख़्तून विरोधियों को कश्मीर घाटी से निकालने में कामयाब रहा.
स्नेडन लिखते हैं कि अलबत्ता, उरी के पश्चिम में तहसील मुज़फ़्फ़राबाद में अधिक अनुशासित सेना के जवानों ने भारतीय सेना का कामयाबी से मुक़ाबला किया. ''आज़ाद फ़ौज की क्षमताओं से कुछ भारतीयों को ऐसा लगा कि पाकिस्तानी सेना जम्मू कश्मीर में इस योग्य फ़ोर्स का समर्थन कर रही थी, मगर यह ग़लत था.''
उनके अनुसार पाकिस्तान आर्मी औपचारिक तौर पर मई 1948 में आज़ाद फ़ौज की मदद के लिए जम्मू कश्मीर में आई और इस तरह पहली पाकिस्तान-भारत जंग शुरू हुई.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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