सन 1206 में जब चंगेज़ ख़ाँ की सेना मध्य एशिया के घास के मैदानों को अपने घोड़ों की टापों तले रौंद रही थी, उस समय दिल्ली सल्तनत के शासक शम्सुद्दीन इल्तुतमिश के घर एक बेटी का जन्म हुआ जो आगे चलकर रज़िया बिंत इल्तुतमिश कहलाईं.
दिल्ली में क़ुतुब मीनार को बनवाना तो शुरू किया था क़ुतुबउद्दीन ऐबक़ ने लेकिन उसे पूरा किया था रज़िया के पिता सुल्तान इल्तुतमिश ने.
मिन्हाजुस सिराज जुज़जानी ने अपनी किताब 'तबक़ात-ए-नासिरी' में लिखा, "माना जाता है कि दिल्ली पर राज करने वाले शासकों में इल्तुतमिश से अधिक उदार, विद्वानों और बुज़ुर्गों का सम्मान करने वाला शख़्स नहीं था."
चौदहवीं सदी में मोरक्को से भारत आने वाले यात्री इब्न बतूता ने भी अपनी किताब 'रेहला' में लिखा था, "दबे-कुचले लोगों को न्याय दिलवाने और उनके साथ हुए अन्याय को दूर करने में इल्तुतमिश का कोई सानी नहीं था."
"अपने महल के बाहर उसने एक बड़ा घंटा लगवा रखा था. किसी भी चीज़ से परेशान लोग उसे बजाकर सुल्तान का ध्यान अपनी तरफ़ आकर्षित कर सकते थे. घंटे की आवाज़ सुनते ही सुल्तान शिकायत दूर करने की कोशिश करते थे."

जब इल्तुतमिश बूढ़ा होने लगा तो उसके दरबारियों ने उससे अनुरोध किया कि वह अपना उत्तराधिकारी घोषित करे ताकि उसकी मृत्यु के बाद उसके वारिसों में जंग न छिड़ जाए. तब इल्तुतमिश ने अपनी सबसे बड़ी बेटी रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया.
उस समय के इतिहासकार सिराज जुज़जानी लिखते हैं, "सुल्तान ने लड़की होते हुए भी रज़िया को अपना वारिस घोषित किया वह भी बाक़ायदा लिखकर. जब उसके दरबारी उसके इस फ़ैसले को पचा नहीं पाए तो इल्तुतमिश ने उनसे कहा, 'मेरे सभी बेटे जवानी का आनंद लेने में लिप्त हैं. उनमें से एक भी बादशाह बनने की क़ाबिलियत नहीं रखता. मेरी मौत के बाद आप पाएंगे कि देश का नेतृत्व करने के लिए मेरी बेटी से क़ाबिल कोई नहीं होगा'."
रज़िया को चुनने के लिए सुल्तान ने सिर्फ़ भावनाओं का सहारा नहीं लिया था. रज़िया में राज करने की क्षमता थी. जब भी इल्तुतमिश ने अपने सैनिक अभियानों के दौरान उसे प्रशासनिक ज़िम्मेदारियाँ सौंपी थीं उन्हें उसने बख़ूबी निभाया था लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इल्तुतमिश का चयन परंपरा के अनुरूप नहीं था.
हालांकि अरब इतिहास में महिलाओं के राजनीति में भाग लेने के कुछ उदाहरण मिलते हैं, उन्होंने कुछ सैनिक अभियानों में भी भाग लिया था लेकिन उस दौर के समाज में आम तौर से महिलाएं पर्दे के पीछे से ही राजनीति में भाग लेती आई थीं, लेकिन उनका राजगद्दी पर बैठना हैरत की ही बात मानी जाती थी.
- मुग़ल बादशाह अकबर के अंतिम दिन अपने बेटे सलीम की बग़ावत से कैसे जूझते बीते - विवेचना
- राणा सांगा ने बाबर को क्या हिंदुस्तान बुलाया था? - विवेचना

इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद उसके लिखित आदेशों के बावजूद उसके दरबारियों ने उसकी अंतिम इच्छा को मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वह एक महिला के अधीन काम करने के लिए तैयार नहीं थे.
उन्होंने इल्तुतमिश के सबसे बड़े जीवित बेटे रुक्नुद्दीन फ़िरोज़ को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया. मशहूर इतिहासकार अब्राहम इराली अपनी किताब 'द एज ऑफ़ रॉथ' में लिखते हैं, "विडंबना देखिए कि फ़िरोज़ को गद्दी पर बैठाकर भी इल्तुतमिश के दरबारियों को एक महिला के शासन से ही दो-चार होना पड़ा और वह भी एक शातिर और प्रतिशोध लेने वाली महिला से. फ़िरोज़ की शासन चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उसने उसकी सारी ज़िम्मेदारी अपनी माँ शाह तुर्कन पर छोड़ दी."
फ़िरोज़ एक ढुलमुल शासक साबित हुआ. सिराज ने लिखा, "फ़िरोज़ उदार और दयालु ज़रूर था लेकिन उसे अय्याशी, शराब और मौज-मस्ती की इतनी लत थी कि राजकाज में उसका बिल्कुल मन नहीं लगता था. वह शराब के नशे में हाथी पर सवार होकर सड़कों और बाज़ारों से गुज़रता था और मुट्ठी से सोने के सिक्के लुटाता था जिसे उसके इर्द-गिर्द चलने वाले लोग लूटते थे."

फ़िरोज़ के शासन के दौरान उसकी माँ शाह तुर्कन ने हरम में अपनी दुश्मनी के पुराने हिसाब बराबर किए.
उसने फ़िरोज़ के एक सौतेले भाई को पहले अंधा करवाया और फिर मरवा दिया. यहां तक उसने फ़िरोज़ की सौतेली बहन रज़िया को भी मरवाने की कोशिश की.
इस घटना के सौ साल बाद सिराज ने लिखा, "इस कुप्रशासन के माहौल में कई गवर्नरों ने फ़िरोज़ के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया. जब फ़िरोज़ उनके विद्रोह को कुचलने दिल्ली से बाहर निकला तो रज़िया ने मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए दिल्ली की जनभावनाओं को अपने पक्ष में कर लिया."
"लोगों ने महल पर हमला बोलकर रुक्नुद्दीन की माँ शाह तुर्कन को गिरफ़्तार कर लिया. जब फ़िरोज़ दिल्ली लौटा तो उसको गिरफ़्तार कर जान से मार दिया गया. फ़िरोज़ ने बमुश्किल सात महीने ही दिल्ली पर राज किया."
- राणा सांगा ने बाबर को क्या हिंदुस्तान बुलाया था? - विवेचना
- मुग़ल बादशाह अकबर के अंतिम दिन अपने बेटे सलीम की बग़ावत से जूझते बीते -विवेचना

14वीं सदी के एक इतिहासकार अब्दुल मलिक इसामी के अनुसार, जब फ़िरोज़ का तख़्ता पलटा गया और दरबारी इस बात पर विचार करने लगे कि किसे सुल्तान बनाया जाए रज़िया ने ख़िड़की से अपना दुपट्टा हिलाते हुए ऐलान किया, "मैं महामहिम की बेटी हूँ. उन्होंने मुझे अपना वारिस चुना था. आपने सुल्तान के आदेशों की अवहेलना करते हुए किसी और के सिर पर ताज रख दिया था, इसलिए आपकी ये हालत हुई है."
"कुछ सालों के लिए ताज मुझे दीजिए और मेरी क्षमताओं को परखिए. अगर मैं एक अच्छी शासक साबित होती हूँ तो मुझे गद्दी पर बने रहने दीजिए. अगर मैं आपकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती तो यह गद्दी किसी और को दे दीजिए."
इस तरह नवंबर 1236 में रज़िया दिल्ली की गद्दी पर बैठीं.
रज़िया दिखने में कैसी थीं, इस बारे में बहुत कम जानकारी है. उनको अपने शाही महल कुस्क-ए-फ़िरोज़ी की सीढ़ियों पर लंबी आस्तीनों का कुर्ता और ढीली शलवार पहने ज़रूर देखा गया था.
इतिहासकार इरा मुखोटी अपनी किताब 'हीरोइंस, पावरफ़ुल इंडियन वीमेन ऑफ़ मिथ एंड हिस्ट्री' में लिखती हैं, "उस ज़माने के जीवनीकार पुरुषों का वर्णन भी बहुत बारीकी से नहीं करते थे. जहाँ तक महिलाओं के वर्णन की बात है वह ज़्यादातर या तो चुप रहते थे या बहुत सी बातें छिपा जाते थे लेकिन इसके बावजूद हमें पता है कि रज़िया तुर्क मूल की थीं और घास के मैदान में रहने वाले लोगों की तरह उनके गाल की हड्डियाँ ऊँची थीं और उनकी आँखें बादाम की शक्ल की थीं."
"जब इल्तुतमिश के दरबार के ग़ुलामों ने रज़िया को सुल्तान बनाया तो उन्हें उम्मीद थी कि वह उनके कहने में चलेंगी और इल्तुतमिश के शासनकाल में उनका जो रसूख़ था वह कायम रहेगा. आने वाले दिनों में रज़िया के व्यवहार ने ये सिद्ध कर दिया कि उन्होंने रज़िया को समझने में ग़लती की थी."

रज़िया के दिल्ली की गद्दी पर बैठने को कई प्रांतीय गवर्नरों ने पसंद नहीं किया. उन्होंने अपनी सेनाओं के साथ दिल्ली कूच कर दिया लेकिन रज़िया ने गवर्नरों के बीच फूट का पूरा फ़ायदा उठाया. इससे पहले कि वह रज़िया का कोई नुक़सान कर पाते, उनका विद्रोह कुचल दिया गया.
अब्राहम इराली लिखते हैं, "रज़िया ने जिस तरह से इस विद्रोह का सामना किया उसकी नेतृत्व क्षमता के बारे में सशंकित दरबारी उसके प्रशंसक बन गए और उन्होंने रज़िया का साथ देने का फ़ैसला कर लिया. इसके बाद हरम में रहने वाली महिलाओं पर जो पाबंदियाँ लगाई जाती थीं, रज़िया ने उन सब को तोड़ने का फ़ैसला कर लिया."
इब्न बतूता ने भी लिखा, "उन्होंने अपने परंपरागत कपड़े और पर्दा त्याग कर कमीज़ और टोपी पहनकर आम जनता के सामने आना शुरू कर दिया. जब वह हाथी पर चढ़ कर महल से बाहर निकलीं तो पूरी जनता ने उनके इस वेष को देखा. कभी-कभी वह सैनिकों से घिरी पुरुषों की तरह तीर-कमान लिए घोड़े पर भी निकलतीं और उनके चेहरे पर कोई नक़ाब नहीं रहता."
- बहादुर शाह ज़फ़र के बर्मा में किस तरह बीते थे आख़िरी दिन
- शेरशाह सूरी जब बिना एक भी सैनिक गंवाए मुग़लों को हराकर बने हिंदुस्तान के बादशाह

रज़िया न सिर्फ़ एक अच्छी प्रशासक साबित हुईं बल्कि एक सैनिक रणनीतिकार के रूप में भी उनकी तारीफ़ हुई. उन्होंने आगे आकर अपनी सेना का नेतृत्व किया.
सिराज जुज़जानी ने जब इल्तुतमिश राजवंश का इतिहास लिखा तो उन्होंने रज़िया के लिए 'लंगरकश' शब्द इस्तेमाल कर उन्हें बहुत सम्मान दिया. इस शब्द का अर्थ होता है- लड़ाई में सेना का नेतृत्व करने वाला.
वह एक निष्पक्ष सुल्तान साबित हुईं जिन्हें उनकी प्रजा पसंद करती थी. रज़िया एक बादशाह की बेटी ज़रूर थीं लेकिन शुरुआती समय में अपने पिता की विरासत पर निर्भर रहने के बाद उन्होंने अपने आप को इल्तुतमिश से अलग कर लिया था. वह सुल्तान बन गई थीं जो कि मध्ययुगीन भारत में एक मुस्लिम महिला के लिए अनूठी बात थी.

इल्तुतमिश के ज़माने में चाँदी के सिक्के चला करते थे जिनमें उनका नाम गढ़ा होता था. रज़िया ने पहले इन सिक्कों पर अपने पिता के नाम के साथ अपना नाम लिखवाना शुरू कर दिया. उनमें इल्तुतमिश को 'सुल्तान-ए-आज़म' और रज़िया को 'सुल्तान-ए-मुअज़्ज़म' कहा गया.
समय के साथ रज़िया में इतना आत्मविश्वास आ गया था कि उन्होंने सिर्फ़ अपने नाम पर सिक्के ढलवाने शुरू कर दिए थे.
सांस्कृतिक इतिहासकार एलिसा गैबे ने अपनी किताब मेडिवल एंड अर्ली मॉडर्न इस्लाम में लिखा, "सिक्कों पर रज़िया के नाम से पहले 'सुल्तान' गढ़ा रहता था. उन्होंने कभी भी अपने लिए 'सुल्ताना' शब्द का प्रयोग नहीं किया. वह उस दौर में सुल्तान बनीं जब यूरोप में महिलाएं अपने घरों की चारदीवारी से बाहर निकलने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं."
दिल्ली सल्तनत के कट्टर इस्लामी दरबारियों को रज़िया का खुला व्यक्तित्व बहुत नागवार गुज़रा और उन्होंने उनको हटाने की योजना बनानी शुरू कर दी.
सुल्तान के रूप में रज़िया की शख़्सियत का बहुत बड़ा हिस्सा था, बाहरी दुनिया को अपने आप को एक पुरुष की तरह दिखाना.
अब्राहम इराली लिखते हैं, "वह दूसरों को तो दिखा सकती थीं कि वह पुरुषों से कम नहीं हैं लेकिन अपने-आप को नहीं. पुरुष साहचर्य की उनकी चाह उनके पतन का कारण बनी. इसके अलावा, जिस तरह से उन्होंने बाहरी लोगों को अपने नज़दीक लाना शुरू किया वह उनके दरबारियों को रास नहीं आया."
"उनमें से एक शख़्स था अबीसीनियाई मूल का जलालुद्दीन याक़ूत. याक़ूत को रज़िया का अमीर-ए-अकबर का पद देना उनके तुर्क दरबारियों को बिल्कुल पसंद नहीं आया. उन्हें शक था कि याक़ूत के साथ उनके प्रेम संबंध हैं. उन्होंने रज़िया को गद्दी से हटाने के लिए षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया."
- बाबर से लेकर औरंगज़ेब तक, मुग़ल बादशाह कैसे गुज़ारते थे रमज़ान और कैसे होता था इफ़्तार
- गुलबदन बेगम: अकबर के लिए बेहद ख़ास थीं उनकी ये बुआ, मुग़ल इतिहास में भी मिला है विशेष स्थान

रज़िया के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वाला पहला शख़्स था कबीर ख़ाँ. उसको अपनी तरफ़ करने के लिए रज़िया ने उसे पहले ही लाहौर का गवर्नर बना दिया था लेकिन जब रज़िया का रसूख़ बढ़ने लगा तो उसने दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर लाहौर में बग़ावत कर दी.
सन 1239 में रज़िया इस बग़ावत को कुचलने के लिए एक बड़ी सेना लेकर रवाना हुईं. चिनाब नदी के किनारे रज़िया कबीर ख़ाँ की सेना से सामना हुआ. कबीर ख़ाँ रज़िया की सेना का सामना नहीं कर सका और उसे हार माननी पड़ी.
लेकिन जब वह दक्षिण पंजाब में कबीर ख़ाँ के विद्रोह को कुचलने के लिए गई हुई थीं तब दिल्ली में उनके दरबारी हरकत में आ गए. उन्होंने दिल्ली में रज़िया के क़रीबी याक़ूत की हत्या कर दी. रज़िया को पंजाब गए उनके नज़दीकी साथियों के साथ भटिंडा में गिरफ़्तार कर लिया गया.
उसके बाद रज़िया के सौतेले भाई मोइज़ुद्दीन बहराम शाह को दिल्ली का सुल्तान बना दिया गया लेकिन रज़िया भी पूरी तरह से चुकी नहीं थीं.
रज़िया ने उन्हें गिरफ़्तार करने वाले भटिंडा के गवर्नर अल्तूनिया को ऊँचे पद का लालच देकर अपने साथ मिला लिया. यही नहीं, उन्होंने उससे शादी कर ली. दोनों एक सेना लेकर दिल्ली की तरफ़ बढ़े लेकिन यहाँ भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया. दिल्ली सल्तनत की सेना ने उनको हरा दिया.
इसामी ने लिखा, एक भी घुड़सवार रज़िया के साथ नहीं रहा. वह और अल्तूनिया लड़ाई के मैदान से भाग गए और स्थानीय लोगों की गिरफ़्त में आ गए.
उसके बाद रज़िया के साथ क्या हुआ उसके बारे में इतिहासकार एकमत नहीं हैं.
सिराज के अनुसार गिरफ़्तार होते ही रज़िया और अल्तूनिया की हत्या कर दी गई. एक और इतिहासकार याह्या सरहिंदी के अनुसार दोनों को बेड़ियों में बाँध कर सुल्तान के सामने पेश किया गया जिसने उनको मौत की सज़ा दी.
लेकिन इब्न बतूता का कहना है कि एक किसान ने कैथल में रज़िया के ज़ेवर चुराने के लिए उनकी हत्या की.
रज़िया ने तीन वर्ष और छह दिनों तक दिल्ली की सल्तनत पर राज किया. उन्हें यमुना के किनारे दफ़नाया गया और उनकी याद में एक छोटा मक़बरा बनवाया गया जो आज भी दिल्ली में तुर्कमान गेट के पास मौजूद है.

सिराज जुज़जानी ने लिखा, "रज़िया सुल्तान एक महान सम्राट थीं. वह बुद्धिमान, न्यायप्रिय और उदार शासक थीं जिन्होंने अपने लोगों की भलाई के लिए बहुत काम किए. एक अच्छे राजा में जितने भी गुण होने चाहिए थे वह सब उनमें थे. बस उनका एक ही दोष था कि वह पुरुष नहीं थीं, इसलिए पुरुषों की नज़र में उनके इन गुणों की कोई क़ीमत नहीं थी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
- बाबर की बेटी की कहानी जिसने ठुकराए थे ऑटोमन सुल्तान के शाही फरमान
- गुरु गोबिंद सिंह ने जब औरंगज़ेब को लिखा- ‘हमारे बीच शांति संभव नहीं’: विवेचना
- विवेचना: शिवाजी के औरंगजेब की क़ैद से बच निकलने की पूरी कहानी
You may also like
महाभारत कालीन भयानकनाथ मंदिर में सावन में उमड़ते हैं श्रद्धालु
Monsoon Session: लोकसभा में आज पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर पर होगी चर्चा, पीएम मोदी भी होंगे शामिल
Barabanki Temple Accident: मनसा देवी के बाद अब बाराबंकी में भगदड़, 2 श्रद्धालुओं की मौत, 29 से अधिक घायल
शेयर बाजार की कमजोर शुरुआत: सेंसेक्स 163 अंक गिरा, निफ्टी 24,782 पर खुला
मुगलो को पानीˈ पी पीकर कोसने वालो भारत में मुगलों ने दीं ये 8 स्वादिष्ट चीजें जिन्हें आज भी शौक से खाते हैं लोग