स्पेसएक्स की सैटेलाइट इंटरनेट सेवा स्टारलिंक श्रीलंका में पैर रखते ही फिर से चर्चा में है.
भूटान और बांग्लादेश के बाद श्रीलंकादक्षिण एशिया का तीसरा देश है, जहाँ स्टारलिंक इंटरनेट की शुरुआत हुई है.
स्पेसएक्स के फाउंडर और सीईओ एलन मस्क ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर श्रीलंका में स्टारलिंक की एंट्री के बारे में घोषणा की.
स्टारलिंक के जल्द ही भारत में भी आने की ख़बरें हैं. समाचार एजेंसी पीटीआई ने एक रिपोर्ट में बताया था कि स्टारलिंक को भारत के दूरसंचार विभाग से अपनी सेवाएं यहाँ शुरू करने के लिए मंज़ूरी मिल गई है.
कुछ समय पहले भारती एयरटेल और रिलायंस जियो जैसी बड़ी भारतीय टेलीकॉम कंपनियों ने स्टारलिंक के संबंध में स्पेसएक्स के साथ समझौते की भी घोषणा की थी.
स्टारलिंक एक लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) सैटेलाइट इंटरनेट सेवा है, जिसे इस तरह डिज़ाइन किया गया है कि ये किसी दूरदराज़ के इलाक़े में भी हाई स्पीड इंटरनेट दे.
मगर ये उन टेलीकॉम ब्रॉडबैंड नेटवर्क से कैसे अलग है, जिनका इस्तेमाल हम अभी तक करते आ रहे हैं और इसके भारत आने से यूज़र्स के लिए क्या बदलेगा?
स्टारलिंक है क्या?स्टारलिंक सैटेलाइट यानी उपग्रहों का एक नेटवर्क है, जो इंटरनेट सेवा देता है. ये स्पेसएक्स कंपनी की ओर से शुरू की गई सेवा है.
इसकी वेबसाइट के मुताबिक, "स्टारलिंक दुनिया का पहला और सबसे बड़ा सैटेलाइट समूह है, जो स्ट्रीमिंग, ऑनलाइन गेमिंग, वीडियो कॉल के साथ ही और भी बहुत कुछ करने में सक्षम ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवा देने के लिए पृथ्वी की निचली कक्षा का इस्तेमाल करता है."
साल 2019 में ये सेवा शुरू की गई थी. मौजूदा समय में इस टेलीकम्युनिकेशन प्रोजेक्ट के तहत लगभग 8 हज़ार छोटे सैटेलाइट पृथ्वी की निचली कक्षा में हैं.
ये सैटेलाइट आमतौर पर पृथ्वी की सतह से 200-2000 किलोमीटर की ऊंचाई तक ही चक्कर लगाते हैं.
साल 2024 के आख़िर तक, स्टारलिंक के 100 से अधिक देशों में क़रीब 46 लाख से अधिक यूज़र्स थे.
यूटलसेट वन वेब और जियो सैटेलाइट कम्युनिकेशंस के बाद स्टारलिंक तीसरी कंपनी है, जिसे भारत में डिपार्टमेंट ऑफ़ टेलीकम्युनिकेशंस की ओर से सैटलाइट इंटरनेट सर्विस देने के लिए लाइसेंस मिल गया है.
सैटेलाइट इंटरनेट कैसे काम करता है?
सैटेलाइट इंटरनेट अंतरिक्ष में मौजूद सैटेलाइट को यूज़र के डिवाइस से सिग्नल भेजकर काम करता है.
ये इंटरनेट से जुड़े ग्राउंड स्टेशन तक डेटा पहुंचाता है. ग्राउंड स्टेशन इस डेटा को वापस सैटेलाइट के ज़रिए यूज़र के डिश पर भेजता है, जिससे कनेक्शन पूरा होता है.
ऐसा नहीं है कि अभी सैटेलाइट इंटरनेट मौजूद नहीं है. लेकिन ये उन सैटेलाइट का इस्तेमाल करते हैं, जो हाई अर्थ ऑर्बिट (एचईओ) में हैं. ये सैटेलाइट पृथ्वी की सतह से 30 हज़ार किलोमीटर ऊपर चक्कर लगाते हैं.
विज्ञान मामलों के जानकार पल्लव बागला स्टारलिंक इंटरनेट के इस्तेमाल का अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, "इस प्रक्रिया में किसी फ़ाइबर ऑप्टिक केबल की या टावर की ज़रूरत नहीं होती. स्टारलिंक इंटरनेट को इस्तेमाल करने के लिए एक सैटेलाइट एंटीना चाहिए. एक छोटा सा ट्रैकिंग सॉफ़्टवेयर लेना होता है, जो लैपटॉप से कनेक्ट हो जाए. एंटीना से अलग-अलग सैटेलाइट जो ऊपर से गुज़र रहे हों, वो ट्रैक हो जाते हैं और ऐसे आपको इंटरनेट मिल जाता है."
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इसी साल मार्च महीने में भारत की दो दिग्गज टेलीकॉम कंपनियों- भारती एयरटेल और रिलायंस जियो ने स्टारलिंक के साथ अलग-अलग डील की थी. हालांकि, ये डील स्टारलिंक के उपकरणों को भारतीय बाज़ार में उपलब्ध कराने से जुड़ी थी.
इटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने मार्केटिंग डेटा और एनालिटिक कंपनी कैंटर के साथ मिलकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की. इसके मुताबिक, भारत में साल 2025 के आख़िर तक इंटरनेट यूज़र्स की संख्या 90 करोड़ को पार कर जाएगी.
स्पेसएक्स साल 2021 से भारत में अपनी सैटेलाइट इंटरनेट सेवा करने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसे हरी झंडी अभी तक नहीं मिली है. मगर ये भारत आया तो इसका दूसरी टेलीकॉम कंपनियों और भारतीय यूज़र्स पर क्या असर देखने को मिल सकता है?
फिलहाल भारतीय यूज़र्स फ़ाइबर ऑप्टिक केबल्स, डिजिटल सब्सक्राइबर लाइन्स यानी डीएसएल या सेल्युलर टावर के ज़रिए इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं.

पल्लव बागला कहते हैं कि इसके उलट स्टारलिंक एलईओ सैटेलाइट टेक्नोलॉजी के ज़रिए काम करता है, जिससे ये उन इलाक़ों में भी इंटरनेट पहुंचाएगा जहां ब्रॉडबैंड का अब तक चला आ रहा इन्फ़्रास्ट्रक्चर नहीं है.
उन्होंने कहा, "ये दूरदराज़ के इलाके, जहां 4जी और 5जी के टावर नहीं हैं और जहां उन्हें लगाना भी संभव नहीं, जहां पर फाइबर ऑप्टिक केबल नहीं जा सकता है. वहां ये सैटलाइट बेस्ड सर्विस सबसे प्रभावी होगी."
उनका कहना है कि ख़ासकर हमारी फ़ौज के लिए ये बहुत उपयोगी होगा, क्योंकि जो दूरदराज़ की चौकियां हैं, वहां भी इंटरनेट कनेक्टिविटी होगी. हालांकि, उनकी नज़र में स्टारलिंक फ़ाइबर ऑप्टिक से बेहतर इंटरनेट स्पीड नहीं दे सकता.
साथ ही इसकी कीमत भी ऊंची होगी. इस वजह से ये आम लोगों के बीच शायद ही लोकप्रिय हो सके.
पल्लव बागला कहते हैं, "भारत में इंटरनेट बहुत सस्ता है. मुझे लगता है कि स्टारलिंक की सेवाएं सेना, नौसेना, उद्योग क्षेत्र आदि में ज़्यादा इस्तेमाल की जाएगी, जिन्हें सुदूर क्षेत्रों में काम करना होता है. ये महंगी सेवा है इसलिए इसका मौजूदा कंपनियों की ओर से मुहैया कराई जाने वाली इंटरनेट सेवा पर कोई ख़ास असर नहीं होगा."
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सैटेलाइट इंटरनेट सैटेलाइट से मिलने वाला वायरलेस इंटरनेट है. यह जमीन पर उपलब्ध केबल या टॉवर वाले इंटरनेट से अलग होता है. ये सीधे सैटेलाइट से कनेक्ट होकर चलता है.
स्टारलिंक के अलावा ह्यूजेस कम्युनिकेशंस इंडिया लिमिटेड, टाटा कम्युनिकेशंस, वायासेट आईएनसी और वन बेव भारत में सैटेलाइट इंटरनेट के बिजनेस में हैं.
पिछले महीने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) ने एक बयानजारी कर के स्टारलिंक की भारत में एंट्री का विरोध किया था. पार्टी ने स्पेसएक्स के साथ हुई डील को रहस्य करार देते हुए कहा कि ये एक विदेशी कंपनी है और भारत के अहम इन्फ़्रास्ट्रक्चर को विदेशी हाथों में सौंपने से सुरक्षा को लेकर गंभीर चुनौतियां जुड़ी होंगी.
पल्लव बागला हालांकि, इन चिंताओं को ख़ारिज करते है. वह कहते है, "स्टारलिंक के सैटेलाइट तो अभी भी गुज़र रहे हैं आपके ऊपर से. इन्हें रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं है. जहां तक संसाधनों की बात है तो स्टारलिंक को लाइसेंस दिया जा रहा है, जिसे वापस भी लिया ज सकता है, या जिसे रिन्यू न करना भी भारत के हाथ में है."
हालांकि, वो सैटेलाइट इंटरनेट सेवा से जुड़ी दूसरी चिंताओं की ओर ध्यान दिलाते हैं.
उनका कहना है, "अभी स्टारलिंक के अंतरिक्ष में आठ हज़ार के करीब सैटेलाइट हैं. स्पेसएक्स की मंशा है कि ये बढ़कर 12 से 15 हज़ार हों. ऐसे में अंतरिक्ष कचरे का क्या होगा. इतने सैटेलाइट होंगे, तो कहीं टक्कर हो जाए अंतरिक्ष में. तब क्या होगा. हमारा चंद्रयान-3 जब लॉन्च होना था, तब हमारे रॉकेट ने करीबन एक मिनट देरी से उड़ान भरी थी क्योंकि उसे जहां से गुज़रना था, उसके ऊपर से स्टारलिंक के सैटेलाइट जा रहे थे. इस तरह की समस्याएं आएंगी."
कुछ समय पहले ही ये सामने आया था कि सूरज पर उठते तूफ़ान यानी सोलर स्टॉर्म की वजह से स्पेसएक्स के लॉन्च किए गए सैटेलाइट प्रभावित हो रहे हैं. ख़ासतौर पर वे जो पृथ्वी की निचली कक्षा में घूम रहे थे. इस तरह की परिस्थिति में सैटेलाइट इंटरनेट सेवा कैसे काम करेगी?
पल्लव बागला ने बताया, "जब सूरज को गुस्सा आता है और जब स्टॉर्म आता है और वो जो रेडिएशन धरती की ओर खींचता है तो फिर जो रास्ते में आता है वो झुलस जाता है. ये सामान्य बात है. हां, स्टारलिंक के कुछ सैटेलाइट झुलस गए थे. लेकिन इनके पास इतने सैटेलाइट हैं कि सारे नहीं झुलस सकते. ये खराब हो चुके सैटेलाइट्स की जगह नए सैटेलाइट भेज देते हैं. तभी स्पेसएक्स का फैल्कन 9 रॉकेट हफ़्ते में एक या दो बार उड़ान भरता है, जिसके ज़रिए स्टारलिंक के सैटेलाइट छोड़े जाते हैं."
उन्होंने इसे साइबर सुरक्षा के लिहाज़ से एक बड़ी चुनौती ज़रूर बताया पर साथ ही ये भी कहा कि हमारे यहां सुरक्षा के लिहाज़ से इसे बहुत करीब से परखा गया और हमारी सुरक्षा एजेंसियों ने इसे सुरक्षित माना है.
वो इसकी ऊंची कीमत को एक बड़ी चिंता की वजह मानते हुए कहते हैं, " बहुत महंगी सर्विस है. मगर जहां इंटरनेट है ही नहीं वहां के लिए तो आप कोई भी कीमत दे सकते हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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