15 मार्च, 1971 को जब याह्या ख़ान सत्ता हस्तांतरण पर बात करने ढाका पहुंचे तो शेख़ मुजीब एक सफ़ेद कार में बैठकर उनसे मिलने आए.
उस कार पर एक काला झंडा लगा हुआ था. जब याह्या मुजीब को बातचीत के लिए गवर्नमेंट हाउस के ड्राइंग रूम में ले गए तो शेख़ ने इस पर अपना विरोध प्रकट किया.
जॉन सिसॉन और लिओ रोज़ ने अपनी किताब 'वॉर एंड सेसेशन: पाकिस्तान, इंडिया एंड क्रिएशन ऑफ़ बांग्लादेश' में लिखा, "मुजीब चाहते थे कि ये बातचीत एकांत में हो. याह्या ने आदेश दिया कि बाथरूम में दो कुर्सियाँ डलवाई जाएँ. इस तरह एक बाथरूम में पाकिस्तान को बचाने की आख़िरी बातचीत शुरू हुई."
ये बातचीत ढाई घंटे तक चली. 19 मार्च को याह्या ने भुट्टो को संदेश भेजा कि वह भी बातचीत में शामिल होने ढाका चले आएं.
जब ये तीनों मिले तो याह्या ने भुट्टो और मुजीब के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश की लेकिन ये दोनों आपस में बात करने से कतराते रहे.
याह्या ने मज़ाक किया कि वे दोनों नवविवाहित दंपत्ति की तरह व्यवहार कर रहे हैं.
सिसॉन और रोज़ लिखते हैं, ''जब याह्या ने दोनों का हाथ पकड़कर बातचीत शुरू करने का अनुरोध किया तब जाकर भुट्टो और मुजीब ने एक दूसरे से बोलना शुरू किया.''
शुरुआती हिचक के बाद एक फ़ॉर्मूले पर सहमति हो गई कि संयुक्त पाकिस्तान के अंदर बांग्लादेश का अस्तित्व रहेगा लेकिन फिर अचानक 23 मार्च को सब कुछ बिखर गया.
सैम डैलरिंपल अपनी किताब 'शैटर्ड लैंड' में लिखते हैं, "23 मार्च को पूरे पाकिस्तान में लाहौर रिज़ोल्यूशन दिवस मनाया जा रहा था. इस दिन ही सन 1940 में पहली बार आज़ाद मुस्लिम देश का विचार रखा गया था. अवामी लीग इस दिन को विरोध दिवस के रूप में मना रही थी."
"पूरे शहर के करीब-करीब हर घर में नए डिज़ाइन किए हुए लाल, हरे और पीले रंग के झंडे लगे हुए थे जिन पर बांग्लादेश का नक्शा बना हुआ था. उसी दिन ढाका टेलीविज़न ने पाकिस्तान का राष्ट्र गान बजाने से इनकार कर दिया था. ऐसा लगता है कि इस दिन पाकिस्तानी सेना ने मान लिया था कि अवामी लीग एक अलगाववादी संगठन है."
25 मार्च की शाम तक याह्या का संयम समाप्त हो चुका था. उन्होंने 'ऑपरेशन सर्चलाइट' का आदेश दे दिया था.
पाँच दिन पहले ही इस योजना को आपात उपाय के रूप में अंतिम रूप दिया गया था. इसका उद्देश्य न सिर्फ़ अवामी लीग के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना था बल्कि पाकिस्तानी सेना की सभी बंगाली रेजिमेंटों के सैनिकों के हथियार ले लेना भी था.
25 मार्च की शाम जब याह्या ढाका से रवाना हुए उसके बाद सादे कपड़ों में पाकिस्तानी सैनिक ढाका हवाई अड्डे पर उतरना शुरू हो गए.
उसी दिन ढाका में तैनात अमेरिकी राजनयिक आर्चर ब्लड अपनी पत्नी मेग के साथ एक डिनर पार्टी आयोजित कर रहे थे.
उनके मेहमानों में शामिल थे अमेरिका से आए कुछ लोग, दो बंगाली हाइकोर्ट जज और एक यूगोस्लाव राजनयिक. वे सब स्पेंसर ट्रेसी की एक पुरानी फ़िल्म देख रहे थे, तभी ब्लड के फ़ोन की घंटी बजी.
दूसरे छोर पर किसी ने ब्लड को बताया की बंगाली छात्र पाकिस्तानी सेना के वाहनों को रोकने के लिए सड़कों पर बेरिकेड लगा रहे हैं और जल्द ही दोनों पक्षों के बीच संघर्ष शुरू होने वाला है.
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जैसे ही ब्लड ने ये ख़बर अपने मेहमानों को बताई बंगाली हाइकोर्ट के जजों ने तुरंत अपने घर जाने की इच्छा प्रकट की. उनके पीछे-पीछे एक अमेरिकी दंपति भी गया.
गैरी बेस अपनी किताब 'ब्लड टेलीग्राम इंडियाज़ सीक्रेट वॉर इन ईस्ट पाकिस्तान' में लिखते हैं, "कुछ मिनटों बाद ही भयभीत दंपति ब्लड के घर वापस लौट आया. उन्होंने बग़ल की सड़क पर एक शव पड़ा देखा था. बाक़ी मेहमानों ने उस रात उन्हीं के घर पर ही रुकने का फ़ैसला किया. ब्लड की पत्नी ने उनके लिए बिस्तरों की व्यवस्था की और वह फ़ोन पर जानकारी जुटाने में लग गए कि उस समय ढाका में क्या हो रहा था."
पूरे बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना एक्शन में आ चुकी थी. रात एक बजे पाकिस्तानी सैनिक शेख़ मुजीब के धानमंडी निवास स्थान पर पहुंचे.
कुछ सैनिकों ने शेख़ के घर की चारदीवारी फ़लांग कर फ़ायरिंग शुरू कर दी जिसमें शेख़ का एक पहरेदार मारा गया. मुजीब को गिरफ़्तार कर लिया गया.
पाकिस्तानी सेना मुजीब को शहीद नहीं बनाना चाहती थी, उसे आदेश था कि मुजीब को ज़िंदा पकड़ा जाए.
पाकिस्तानी सेना का सबसे बड़ा निशाना था ढाका विश्वविद्यालय.
बांग्लादेश पर बहुचर्चित किताब 'डेड रेकनिंग, मेमोरीज़ ऑफ़ द 1971 बांग्लादेश वॉर' में शर्मीला बोस लिखती हैं, "विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर ऊला ने एक फ़ुटेज रिकॉर्ड किया था जिसमें सैनिकों को निहत्थे छात्रों को बंदी बनाते और बिल्कुल नज़दीक से गोली मारते दिखाया गया था. छात्रों को अपने ही साथियों के शवों को दफ़नाने के लिए मजबूर किया गया था."
उस रात आसिफ़ अली ढाका विश्वविद्यालय में अकेले ग़ैर-बंगाली थे. अनम ज़करिया अपनी किताब '1971 पीपुल्स हिस्ट्री फ़्रॉम बांग्लादेश, पाकिस्तान एंड इंडिया' में लिखती हैं, "आसिफ़ ने मुझे बताया था. छात्रों और छात्राओं ने सैनिकों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए मानव चेन बना ली थी लेकिन सैनिकों ने उन पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दी थी. मारे जाने वालों में आसिफ़ के सबसे क़रीबी दोस्त मोईन थे. मोईन और उनकी महिला मित्र दोनों वहाँ मौजूद थे. वह तो बच गईं लेकिन मोईन मारे गए. मुझे अब तक उस दृश्य के डरावने सपने आते हैं."
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उधर जब इंटरकॉन्टिनेंटल होटल के सामने मशीन गन से लैस पाकिस्तानी सेना की जीप ने एक शॉपिंग सेंटर पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं तो होटल में मौजूद पत्रकार भौंचक्के रह गए.
'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने अपने 28 मार्च, 1971 के अंक में लिखा, "जब पत्रकारों ने होटल के मुख्य द्वार पर तैनात कैप्टन से इस गोलीबारी पर अपना विरोध प्रकट किया तो उसने जवाब दिया, "अगर मैं अपने ख़ुद के लोगों को मार सकता हूँ तो तुमको भी मार सकता हूँ."
होटल में रह रहे सभी विदेशी पत्रकारों से देश छोड़कर जाने के लिए कहा गया. वहाँ रह रहे सिडनी शॉनबर्ग के कैमरे की रीलें ज़ब्त कर ली गईं लेकिन कुछ पत्रकार सेना की गिरफ़्त से बच निकले. उनमें से एक थे डेली टेलीग्राफ़ अख़बार के संवाददाता साइमन ड्रिंग.
सलिल त्रिपाठी ने अपनी किताब 'द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट' में लिखा, "ड्रिंग होटल की छत पर छिपे हुए थे. जब वहाँ से सेना चली गई तो वह होटल से बाहर निकले. उन्होंने शहर में कई लोगों का इंटरव्यू किया और अपने मोज़ों में अपने नोट्स को छिपाकर देश से बाहर ले गए."
जब 26 मार्च की दोपहर भुट्टो कराची पहुंचे तो उन्होंने प्रेस के सामने घोषणा की- "ख़ुदा का शुक्र है कि पाकिस्तान को बचा लिया गया है."
अनम ज़करिया ने लिखा, "पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले लाखों लोगों की नज़र में 'ऑपरेशन सर्चलाइट' ने पाकिस्तान को बचाया नहीं था बल्कि उसने पाकिस्तान के सपने को पूरी तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया था."
कई साल बाद तारिक़ अली ने भी लिखा, "जिन्ना के पाकिस्तान की 26 मार्च, 1971 को मौत हो गई थी जब पूर्वी पाकिस्तान ख़ून में डूब गया था."
ढाका में तैनात अमेरिकी राजनयिक आर्थर ब्लड ने अपनी सरकार को भेजे टेलीग्राम का शीर्षक दिया, 'सेलेक्टिव जिनोसाइड' यानी चुन-चुन कर किया गया जनसंहार. ब्लड को इससे बहुत हताशा हुई जब न तो इस्लामाबाद में अमेरिकी दूतावास और न ही अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने उनकी रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की.
गैरी बेस ने अपनी किताब में लिखा, "कुछ दिनों बाद जब ब्लड की रिपोर्ट पर बातचीत चली तो किसिंजर ने कहा कि ढाका में हमारे राजनयिक बहुत मज़बूत मानसिक शक्ति वाले शख़्स नहीं हैं. इसका नतीजा ये हुआ कि ब्लड और उनकी टीम ने अपनी सरकार के ख़िलाफ़ असहमति नोट लिखा. इस पर ढाका में अमेरिकी दूतावास के 20 कर्मचारियों ने हस्ताक्षर किए.
नोट में कहा गया, "हमारी सरकार लोकतंत्र को दबाने के प्रयासों और अत्याचारों की निंदा करने में नाकाम रही है. एक पेशेवर लोकसेवक होने के नाते हम अमेरिकी सरकार की वर्तमान नीति के प्रति अपनी असहमति प्रकट करते हैं." (गैरी बेस, ब्लड टेलिग्राम पृष्ठ 78)
वॉशिंगटन में इस नोट को पसंद नहीं किया गया और कुछ हफ़्तों बाद आर्थर ब्लड ढाका से तबादला कर दिया गया.
'ऑपरेशन सर्चलाइट' शुरू होने के पाँच दिनों के अंदर क़रीब 300 शरणार्थी सीमा पार कर भारत पहुंच चुके थे. दो सप्ताह बाद शरणार्थियों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही थी.
भारत के सीमावर्ती प्रदेशों से ख़बरें आने लगी थीं कि वहाँ चीनी, नमक और केरोसिन तेल की कमी हो गई है. मई आते-आते उन इलाक़ों में पीने के पानी की भी कमी हो गई थी.
सैम डैलरिंपल लिखते हैं, "इतने सारे लोगों के खाने का इंतज़ाम करने के कारण पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी थी. सितंबर आते-आते पूर्वोत्तर भारत के खासी पहाड़ियों में स्थानीय लोगों और शरणार्थियों के बीच झगड़ों की ख़बरें आने लगी थीं.
भारतीय प्रशासन ने जान-बूझ कर रिफ्यूजी लोगों की धार्मिक पहचान का विवरण नहीं दिया था लेकिन अनुमान था कि मई तक आने वाले शरणार्थियों में 80 फ़ीसदी हिंदू थे.

ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू होने के एक सप्ताह के अंदर इंदिरा गांधी के सलाहकारों को भारतीय रक्षा अध्ययन संस्थान के निदेशक के सुब्रमण्यम का एक ब्लू प्रिंट मिला था जिसमें उन्होंने ज़ोर देकर कहा था कि भारत को पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे जनसंहार का इस्तेमाल पाकिस्तान को उसके चीनी और अमेरिकी दोस्तों से अलग-थलग करने में करना चाहिए.
सैम डैलरिंपल लिखते हैं, "सुब्रमण्यम का तर्क था कि भारत के लिए ये अच्छा मौका है कि वह पाकिस्तान को तोड़े और दक्षिण एशिया की मुख्य शक्ति के रूप में उभरे."
भारत ने इस सलाह को कब गंभीरता से लेना शुरू किया इस पर मतभेद हैं.
उस समय भारतीय सेना में मेजर रहे चंद्रकांत सिंह अपनी किताब 'मेघना: रिवर ऑफ़ विक्ट्री' में लिखते हैं, "मुक्ति फ़ौज को मदद देने का पहला फ़ैसला हाई कमांड ने नहीं, बल्कि मौक़े पर मौजूद सैन्य अफ़सरों ने लिया था. ऑपरेशन सर्चलाइट के समय मैं पूर्वी पाकिस्तान में चटगाँव हिल इलाक़े में मिज़ो लड़ाकों के ख़िलाफ़ एक जासूसी मिशन पर था लेकिन मुझे इस तरह के कोई आदेश नहीं थे कि उन बंगाली सैनिकों का क्या किया जाए जो पाकिस्तानी सेना छोड़कर भारतीय सीमा में प्रवेश कर रहे थे."
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कुछ दिनों बाद ही भारतीय सेना ने मुक्ति बाहिनी की मदद करनी शुरू कर दी थी.
इसका शुरुआती लक्ष्य था पूर्वी पाकिस्तान में नागा और मिज़ो विद्रोहियों को मिलने वाली मदद को समाप्त करना.
रॉ में वरिष्ठ पद पर काम कर चुके बी रमण ने अपनी किताब 'काओ बॉयज़ ऑफ़ रॉ' में लिखा था, "भारत ने जल्द ही मुक्ति बाहिनी की मदद के लिए प्रशिक्षण शिविर शुरू कर दिए. उन्होंने कलकत्ता में बांग्लादेश का दूतावास भी खुलवा दिया. रॉ ने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ मनोवैज्ञानिक लड़ाई शुरू कर दी. पूर्वी पाकिस्तान में बंगालियों के क़त्ल-ए-आम की ख़बरें भी पूरी दुनिया को बताई जाने लगीं.''
उधर पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद मिज़ो विद्रोहियों ने उस पूरे प्रकरण में पाकिस्तानी सेना का साथ देने का फ़ैसला किया.
वैन शैडेल अपनी किताब 'अ वार विदिन अ वार: मिज़ो रेबेल्स एंड द बांग्लादेश लिबरेशन स्ट्रगल' में लिखते हैं, "क़ायदे से मिज़ो और बांग्लादेशी विद्रोहियों को एक दूसरे का साथ देना चाहिए था क्योंकि दोनों विभाजन के बाद कथित रूप से दूसरे दर्जे के नागरिक बनाए जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे थे. लेकिन 1971 में मिज़ो विद्रोही पाकिस्तान पर इतना निर्भर हो चुके थे कि उन्होंने उस संघर्ष में पाकिस्तानी सेना का साथ देने का फ़ैसला कर लिया.उस समय मिज़ो विद्रोहियों की संख्या करीब 600 थी."
शेख़ मुजीब को गिरफ़्तार करने वाले ब्रिगेडियर ज़हीर आलम ख़ाँ अपनी किताब 'द वे इट वॉज़ इनसाइड द पाकिस्तानी आर्मी' में लिखते हैं, "मैं मिज़ो विद्रोहियों को रोज़ एक टन चावल देने के लिए तैयार हो गया, बशर्ते वो मेरी कमांड के अंदर काम करें और मैं वहाँ चल रहे संघर्ष में जब चाहे उनका इस्तेमाल कर सकूँ. मिज़ो विद्रोहियों ने मुक्ति फ़ौज के ख़िलाफ़ पाकिस्तानी अभियान में हमारी बहुत मदद की."
मई, 1971 आते-आते पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान के करीब-करीब सभी नगरों पर दोबारा अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था लेकिन समस्या के राजनीतिक समाधान के लिए अभी भी उन्होंने कोई क़दम नहीं बढ़ाए थे.
उधर पूर्वी पाकिस्तान में हो रही घटनाओं के प्रति पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों का रवैया उदासीनता का था.
मुनीज़ा शम्सी ने बाद में अपनी किताब 'रिअसेसिंग अ फॉरगॉटेन नैशनल नरेटिव' में लिखा, "आज बहुत से पाकिस्तानी मानते हैं कि हमें पता ही नहीं था कि 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में क्या हो रहा था. ज़्यादातर लोगों ने सेंसर की हुई प्रेस पर यकीन और उस पुरानी दलील पर विश्वास करना पसंद किया कि ये एक विदेशी षड्यंत्र है."
"इसका एक कारण पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तान आने वाले ग़ैर बंगाली शरणार्थियों का भी था जिसकी वजह से जनमत बंगाली आंदोलन के ख़िलाफ़ हो गया था. सारे बंगालियों को सिरे से देशद्रोही करार कर दिया गया और उनको अविश्वसनीय और नस्लीय रूप से बदतर लोग कहकर पुकारा जाने लगा."
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पूर्वी पाकिस्तान में हो रही घटनाओं का सबसे पहले भांडा फोड़ा एक पाकिस्तानी ने ही.
अप्रैल, 1971 के अंत में एंटनी मेसक्रेनहेस को वहाँ के सूचना मंत्रालय ने सात और पाकिस्तानी पत्रकारों के साथ पूर्वी पाकिस्तान में हालात सामान्य होने की रिपोर्टिंग करने के लिए आमंत्रित किया.
मेसक्रेनहेस पूर्वी पाकिस्तान में हो रही घटनाओं को देखकर दंग रह गए. 18 मई, 1971 को वह 'संडे टाइम्स' के दफ़्तर पहुंचे और उस अख़बार के लिए एक ख़ास लेख लिखने का प्रस्ताव किया.
'संडे टाइम्स' के 13 जून, 1971 के अंक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था 'जिनोसाइड' यानी जनसंहार.
सालों बाद इंदिरा गांधी ने 'संडे टाइम्स' के संपादक हारोल्ड इवांस को बताया था कि 'संडे टाइम्स' की उस रिपोर्ट ने उन्हें इतना दहला दिया था कि उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में भारत के सशस्त्र हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी थी.
भारत के मशहूर सितारवादक रविशंकर बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन के दोस्त हुआ करते थे.
एक दिन उन्होंने उन्हें सलाह दी कि क्यों न हम बांग्लादेश की मदद के लिए एक संगीत कॉन्सर्ट आयोजित करें.
इन दोनों ने मिलकर न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर गार्डन में एक कॉन्सर्ट आयोजित किया जिसमें बॉब डिलेन, बिली प्रेस्टन और एरिक क्लेप्टन जैसे सितारों ने हिस्सा लिया.
इस कॉन्सर्ट में यूनिसेफ़ रिफ़्यूजी फ़ंड के लिए तीन लाख 43 हज़ार डॉलर जमा किए गए. इस कॉन्सर्ट ने बांग्लादेश आंदोलन को पश्चिमी समाज के बीचोंबीच ला खड़ा किया.

जुलाई में तंज़ानिया में पाकिस्तानी उच्चायुक्त डॉक्टर उस्मान ग़नी ने अपना पद छोड़कर बांग्लादेश सरकार के लिए काम करने का ऐलान किया.
इसके बाद तो अमेरिका, नाइजीरिया और अर्जेंटीना में पाकिस्तानी दूतावासों में काम करने वाले कई बंगाली राजनयिकों ने बांग्लादेश का साथ देने की घोषणा कर दी.
यही नहीं, बग़दाद में पाकिस्तान राजदूत दूतावास के ख़ज़ाने से तीस हज़ार पाउंड लेकर कुवैत और फिर वहाँ से लंदन चले गए.
वहां उन्होंने एक संवाददाता सम्मेलन कर कहा कि लंदन बांग्लादेश के विद्रोहियों का मुख्य केंद्र बन गया है. इस घोषणा ने ब्रिटिश सरकार को एक अजीब-सी स्थिति में डाल दिया.
दिसंबर, 1971 तक भारत में पूर्वी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की संख्या एक करोड़ पार कर चुकी थी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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