हृदयनारायण दीक्षित
संविधान की उद्देशिका में सेकुलर शब्द आपातकाल में जोड़ा गया था। संविधान के मूल पाठ में भी इसका अंग्रेजी शब्दानुवाद ‘सेकुलर’ नहीं था। प्रो. के.टी. शाह ने संविधान सभा में इसे दो दफा जुड़वाने की कोशिश की। 15 नवम्बर 1948 के दिन अनु. 1 में ‘सेकुलर’ शब्द जोड़ने का उनका प्रस्ताव गिर गया। फिर 25 नवम्बर 1948 को एक अन्य प्रस्ताव में ‘सेकुलर’ शब्द का प्रस्ताव औंधे मुंह गिरा। आपातकाल (1976) में पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए ‘सेकुलर’ जोड़ा। इसका अधिकृत हिन्दी पाठ धर्मनिरपेक्षता न होकर पंथनिरपेक्षता है।
धर्म की धारणा पंथ, मत, रिलीजन या आस्था विश्वास से भिन्न है। धर्म हरेक वस्तु या प्राणी का स्वभाव है, आस्था नहीं। अग्नि का धर्म ताप और जल का धर्म है रस। पृथ्वी का गुण कर्म धर्म है- गुरूत्वाकर्षण। पंथ, मत, मजहब आस्था विश्वास हैं। धर्म आस्थामुक्त है। यहां कोई एक देवदूत नहीं। कोई एक आस्थाग्रन्थ नहीं। भारत के लोगों की विवेकशील जीवनशैली का नाम है धर्म। धर्म यानी सनातन सत्य। इसलिए भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। पंथनिरपेक्षता भारत के धर्म का ही स्वाभाविक प्रवाह है। अवसरवादी राजनीति सेकुलर का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष करती है और इसी बहाने देश के बहुसंख्यक समाज को अपमानित करती है।
प्रत्येक शब्द का अर्थ होता है। अर्थ की विकृति में अनर्थ होता है। हरेक शब्द के जन्म का एक इतिहास भी होता है। एक विशेष परिस्थिति और संस्कृति में शब्द का विकास होता है। जर्मन दार्शनिक वाल्टेयर ने इसीलिए ‘तर्क से पहले शब्दों की परिभाषा’ को जरूरी बताया था। सेकुलर विचार का जन्म यूरोपीय पंथिक राज्य की तानाशाही की प्रतिक्रिया में हुआ। प्राचीन भारतीय इतिहास में पंथ/आस्था की तानाशाही वाला कोई राजा या राज्य नहीं हुआ। इस्लामी राज में बेशक औरंगजेब जैसे कई बादशाहों ने मजहब आधारित राजव्यवस्था चलाने के प्रयास किये, लेकिन भारत के धर्म की स्वाभाविक पंथनिरपेक्ष जीवनशैली के चलते सारे प्रयास असफल रहे। लेकिन इसी समय यूरोप में चर्च की पंथ आधारित तानाशाही चली। आमजनों के साथ-साथ राजा और राज्यव्यवस्थाएं भी बिलबिला गयीं। भारत धर्म क्षेत्र होकर भी धार्मिक तानाशाही से मुक्त रहा। यूरोप कथित विवेक विज्ञान से लैस होकर भी अंधआस्थावाद के जबड़ों में पिसा। यूरोपीय मध्यकाल अंधकार युग है, भारतीय मध्यकाल में मजहबी बादशाहत के बावजूद ज्ञान-विज्ञान और तर्क सम्मत धर्म विवेक का प्रवाह है।
छद्म सेकुलरवाद या कथित धर्मनिरपेक्षता सड़ा-गला विदेशी माल है। पश्चिम में चर्च की तानाशाही और राजा की राजशाही के बीच लम्बी लड़ाई चली। पोप इन्नोसेन्ट तृतीय के समय (1198-1216) चर्च के सामने राजा की ताकत नगण्य थी। इंग्लैण्ड और फ्रांस के राजा उसके दबदबे में थे। इटली उसके नियंत्रण में था। पोप से फ्रांस के राजा फिलिप का विवाद हुआ। मूल प्रश्न था कि सत्ता राजा चलाएगा? या पोप की पंथिकसत्ता? फ्रांस के राजा फिलिप ने पादरी समुदाय पर भी कर लगाया। पोप ने विरोध किया। पोप ने आदेश पत्र में कहा कि राजा और राज्य भी पोप-चर्च के अधीन हैं। चर्च की सम्पत्ति या लोग सांसारिक राज्य के अधीन नहीं आते। यही आदेश इंग्लैण्ड के लिए भी था। इंग्लैण्ड में काफी जद्दोजेहद के बाद राजा का आदेश माना गया, पादरी झुक गये। फ्रांस में पोप के आदेश के विरूद्ध राजा ने पोप के लोगों का फ्रांस प्रवेश रोक दिया। पोप और फ्रांस के राजा के बीच की टकराहट बढ़ती गयी। राजा ने देश के बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक बुलाकर तय किया, ”हम सांसारिक मामलों में किसी अन्य सत्ता के अधीन नहीं हैं।” इंग्लैण्ड के राजा हेनरी सप्तम और हेनरी अष्टम भी चर्च के आधिपत्य से लड़े। हेनरी अष्टम के सहायक और हाउस आफ लार्डस के सदस्य कार्डीनल वूल्जे ने बाइबिल के हवाले से कहा, ”जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को दो और जो राजा का है वह राजा को।” सिद्धांत यह बना कि सभी सांसारिक विषयों पर सत्ता का अधिकार है और ईश आस्था से जुड़े कार्य चर्च के हैं।
चर्च की अंध आस्थावादी तानाशाही और संसारवाद की लड़ाई में यथार्थवाद की जीत हुई। 1870 में पोप के रोम पर इटली का अधिकार हो गया। इटली की संसद (1871) ने ‘ला आफ पेपर गारंटीज’ पारित किया। पोप को उनका पड़ोसी क्षेत्र ’वेटिकन’ देकर सर्वोच्च शासक माना गया। बाकी रोम अलग हो गया। 1905 में फ्रांस ने भी कानून बनाकर भौतिक विषयों पर राज्यव्यवस्था का एकाधिकार मजबूत किया। सारांश यह कि राजकाज के संचालन में संगठित पंथ से भिन्न व्यक्ति की गरिमा ही सेकुलरवाद है। लेकिन भारतीय राजनीति के कथित सेकुलर मजहबी कट्टरपंथ और धर्मान्तरणवादी ईसाइयत को सेकुलरवाद बताते हैं। वेटिकन दुनिया का सबसे छोटा देश है। पोप पंथिक राष्ट्राध्यक्ष हैं। सारी दुनिया को ईसाई बनाना उनका लक्ष्य है। कथित धर्मनिरपेक्षता अवसरवादी भारतीय राजनीति का ‘फास्टफूड‘ है। चैम्बर्स ट्वैन्टीन्थ सेन्चुरी डिक्शनरी व अंग्रेजी लागमैन डिक्शनरी सहित पश्चिम के सभी शब्दकोषों में इसका अर्थ पंथ-मजहब से असम्बद्ध, ईश्वर आस्था से पृथक भौतिक संसार है लेकिन अल्पसंख्यकवादी भारतीय राजनीति में इसका अर्थ मजहबवाद है। यहां मजहबी आरक्षण भी सेकुलर है और इसका संवैधानिक विरोध भी साम्प्रदायिकता है। हिन्दू होना सेकुलर विरोधी होना है और मजहबी कट्टरपंथ का समर्थन धर्मनिरपेक्षता है। बड़ा हास्यास्पद और हिंसक हथियार है धर्मनिरपेक्षता।
‘हम भारत के लोग‘ प्राचीन धर्म और संस्कृति के कारण ही सर्वपंथ आदरभाव से युक्त हैं। यहां आयातित सेकुलरवाद की कोई जरूरत नहीं है। पंथ निरपेक्षता भारत का स्वभाव है। इसका मूल अर्थ सर्वपंथ समभाव है। अथर्ववेद में माता पृथ्वी की स्तुति है। यह माता भिन्न-भिन्न विचार वाले जनों को पोषण देती है। सारे मत अंततः एक हैं। गीता भी कहती है कि जो विभक्त दिखाई पड़ने वाले संसार को अविभक्त इकाई देखता है, वही सही देखता है। छद्म ’धर्म-निरपेक्षता’ राष्ट्रभाव का अपमान है। रिलीजन-मत या मजहब की आस्था और धर्म एक नहीं है। भारत में प्रत्येक आस्था को आदर मिला। आखिरकार मजहबी बहुमत वाला एक भी मुल्क पंथनिरपेक्ष क्यों नहीं है? भारतीय धर्म और संस्कृति ने दयानंद, विवेकानंद, गोखले, तिलक, गांधी, पटेल, डॉ हेडगेवार, डॉ. लोहिया, विपिन चन्द्र पाल, बंकिम चन्द्र जैसे प्रेरक व्यक्तित्व दिये हैं। सेकुलर का अर्थ भौतिक और सांसारिक ही होता है, धर्मनिरपेक्ष नहीं। मजहबी अल्पसंख्यकपरस्ती तो कतई नहीं। उधार का ज्ञान खतरनाक होता है। उधार के शब्द और भी खतरनाक होते हैं। निरंतर प्रयोग से शब्द भी घिसते हैं। दुरूपयोग से पिटते भी हैं। इस तरह घिसे पिटे शब्द अपनी आभा खो देते हैं। शब्दों का सम्यक ज्ञान सम्यक प्रयोग ही लोकमंगल का मार्ग है। पतंजलि ने महाभाष्य में शब्दों के सम्यक प्रयोग के ही निर्देश दिए हैं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार / वीरेन्द्र सिंह
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