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ट्रेन में चढ़ो, बस में बैठो, या ऑफिस में प्यास लगे बोलो क्या चाहिए? बिसलेरी! पानी नहीं प्यास बुझाने वाला सुपरहीरो है जानिए इसके सफलता की कहानी

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नई दिल्ली: आज हम बात करेंगे एक ऐसे ब्रांड की, जिसने पानी को बोतल में बंद करके बेच दिया हम बात कर रहे है बिसलेरी की, ट्रेन में चढ़ो, बस में बैठो, या ऑफिस में प्यास लगे - बोलो तो क्या चाहिए? बिसलेरी ये पानी नहीं, भारत का प्यास बुझाने वाला सुपरहीरो है. चलिए बिसलेरी की कहानी शुरू करते हैं. ये स्टोरी इटली से शुरू हुई थी, जहां फेलिस बिसलेरी नाम के एक बंदे ने सोचा, 'पानी को बोतल में बेचूंगा' लेकिन असली खेल शुरू हुआ साल 1965 में, जब ये भारत आया. उस वक्त लोग हंसते थे अरे, पानी कौन खरीदेगा? नल में मुफ्त मिलता है! लेकिन साल 1969 में पारले ग्रुप के रमेश चौहान ने इसे 4 लाख में खरीद लिया. 4 लाख का ये ब्रांड आज 7000 करोड़ का साम्राज्य बन चुका है, ये है असली 'पानी से सोना बनाने' की कला! शुरुआत में बिसलेरी कांच की बोतलों में बिकता था लेकिन रमेश चौहान ने सोचा, 'कांच तो ठीक है, पर प्लास्टिक में मजा आएगा. और फिर आ गई हरी बोतल, जो आज हर दुकान की शान है. आज बिसलेरी के 250ml से लेकर 20 लीटर तक के साइज हैं, और देश में 135 से ज्यादा प्लांट्स हैं, 3000 से ज्यादा डिस्ट्रीब्यूटर्स, ये पानी की फौज है, जो हर गली-नुक्कड़ तक पहुंचती है. जो लोग पहले कहते थे, पानी बेचेगा? पागल हो गया है!' आज वही लोग 20 रुपये की बोतल खरीदते हैं और बोलते हैं, 'बिसलेरी नहीं तो क्या पीयूं?' आज वही लोग बिसलेरी को स्टेटस समझते हैं. बाजार में बिलसेरी, बेलसरी, बिरसेली - नकली नामों की भी लाइन लगी है पर ओरिजिनल तो एक ही है. संगठित मार्केट में 32% हिस्सा बिसलेरी का है. रमेश चौहान ने न सिर्फ पानी बेचा, बल्कि एक भरोसा बनाया.
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