अमेरिका ने रूस की सबसे बड़ी तेल निर्यातक कंपनियों रोसनेफ्ट (Rosneft) और लुकोइल (Lukoil) पर सख्त प्रतिबंध लगाकर वैश्विक तेल बाजार में हलचल मचा दी है। इन पाबंदियों का असर सीधा भारत जैसे देशों पर पड़ने वाला है, जो रूस से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल आयात करते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, अगर ये प्रतिबंध पूरी तरह लागू हुए, तो रूस के 3.1 मिलियन बैरल प्रति दिन की आपूर्ति अंतरराष्ट्रीय बाजार से हट सकती है, जिसमें से करीब एक-तिहाई हिस्सा भारत को मिलता है। इससे तेल की कीमतों में तेजी और आपूर्ति संकट दोनों देखने को मिल सकते हैं।
भारतीय रिफाइनरी के सामने नई चुनौतीइन पाबंदियों के कारण भारतीय तेल कंपनियां अब दिसंबर के लिए अपने रूसी तेल ऑर्डर रद्द करने की तैयारी कर रही हैं। प्रतिबंधों के तहत दुनिया की सभी कंपनियों को 21 नवंबर तक अपनी डिलीवरी और भुगतान निपटाने होंगे। चूंकि रूस से भारत तक तेल पहुंचने में करीब एक महीना लगता है, इसलिए अब नए ऑर्डर लगभग असंभव हो गए हैं।,
रिफाइनर अब वैकल्पिक स्रोतों की तलाश में हैं। कुछ कंपनियां पश्चिम एशिया, अमेरिका और ब्राजील से अतिरिक्त सप्लाई की कोशिश कर रही हैं। हालांकि, ये विकल्प महंगे होंगे क्योंकि रूस से मिलने वाले कच्चे तेल पर उन्हें लगभग दो डॉलर प्रति बैरल की छूट मिलती थी। अब वही तेल उन्हें ऊंची कीमत पर खरीदना पड़ेगा।
अरबों रुपये फंसे, बैंकों की टेंशन बढ़ीरूस पर लगे इन प्रतिबंधों से न सिर्फ आयात प्रभावित होगा, बल्कि भारत की सरकारी कंपनियों की पहले से फंसी रकम भी अटक गई है। ओएनजीसी, ऑयल इंडिया, बीपीसीएल और इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों की रूस में करीब 1 अरब डॉलर (लगभग 8,300 करोड़ रुपये) की डिविडेंड राशि फंसी पड़ी है, जिसे वे अब निकाल नहीं पा रही हैं।
एक रिफाइनरी अधिकारी के अनुसार, “हम प्रतिबंधित संस्थाओं से कारोबार नहीं कर सकते। अगर ऐसा किया तो अमेरिकी बैंकों से जुड़ी हमारी फाइनेंसिंग और पेमेंट सिस्टम पर असर पड़ेगा।”
रिलायंस और नायरा एनर्जी पर बड़ा असरइस स्थिति का सबसे ज्यादा असर रिलायंस इंडस्ट्रीज और नायरा एनर्जी पर पड़ने वाला है। रिलायंस अपनी लगभग आधी तेल आपूर्ति रूस से करती है, जबकि नायरा पूरी तरह रूसी कच्चे तेल पर निर्भर है। गुरुवार को रिलायंस के शेयर 1% गिर गए, जबकि IOC, BPCL और HPCL के शेयरों में 2-3% तक गिरावट दर्ज की गई।
कंपनियों के लिए अब सबसे बड़ी समस्या भुगतान की प्रक्रिया है, क्योंकि बैंक इन ट्रांजेक्शनों को मंजूरी देने से बचेंगे। डॉलर के प्रभुत्व के कारण अमेरिका को तेल व्यापार पर सीधा नियंत्रण रहता है, और यहां तक कि जब भुगतान युआन या दिरहम में किया जाता है, तब भी डॉलर रूपांतरण से अमेरिका को उस पर नजर रखने का मौका मिलता है।
सरकारी कंपनियों पर भी असरसरकारी रिफाइनर भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। भले ही वे रूस से तेल सीधे न खरीदें, लेकिन अगर किसी तीसरे देश से Rosneft या Lukoil के स्रोत वाला तेल आता है, तो बैंक ऐसे सौदों के भुगतान से मना कर सकते हैं। इस कारण दिसंबर और जनवरी के लिए भारतीय रिफाइनरी की योजना पर अनिश्चितता बढ़ गई है।
वैकल्पिक उपाय और उम्मीदरिफाइनरी अधिकारियों का मानना है कि रूस से मिलने वाला कच्चा तेल भारत की कुल आयात का करीब 20% हिस्सा है, इसलिए पूरी आपूर्ति रुक जाने के बावजूद इसका असर सीमित रह सकता है। एक अधिकारी ने कहा, “सप्लाई महंगी जरूर होगी, लेकिन हम संभाल लेंगे। अभी तेल की कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास हैं और रिफाइनिंग मार्जिन अच्छे हैं।”
हालांकि, निजी कंपनियों के लिए यह झटका गहरा साबित हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अचानक आई अनिश्चितता के चलते दिसंबर के लिए कच्चे तेल की बुकिंग कठिन हो गई है। उद्योग जगत को उम्मीद है कि आने वाले दिनों में अमेरिका कुछ छूट दे या रूस के साथ स्थिति में नरमी आए, ताकि ऊर्जा बाजार स्थिर हो सके।
(अस्वीकरण: विशेषज्ञों द्वारा दी गई सिफारिशें, सुझाव, विचार और राय उनके अपने हैं। ये इकोनॉमिक टाइम्स हिन्दी के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।)
भारतीय रिफाइनरी के सामने नई चुनौतीइन पाबंदियों के कारण भारतीय तेल कंपनियां अब दिसंबर के लिए अपने रूसी तेल ऑर्डर रद्द करने की तैयारी कर रही हैं। प्रतिबंधों के तहत दुनिया की सभी कंपनियों को 21 नवंबर तक अपनी डिलीवरी और भुगतान निपटाने होंगे। चूंकि रूस से भारत तक तेल पहुंचने में करीब एक महीना लगता है, इसलिए अब नए ऑर्डर लगभग असंभव हो गए हैं।,
रिफाइनर अब वैकल्पिक स्रोतों की तलाश में हैं। कुछ कंपनियां पश्चिम एशिया, अमेरिका और ब्राजील से अतिरिक्त सप्लाई की कोशिश कर रही हैं। हालांकि, ये विकल्प महंगे होंगे क्योंकि रूस से मिलने वाले कच्चे तेल पर उन्हें लगभग दो डॉलर प्रति बैरल की छूट मिलती थी। अब वही तेल उन्हें ऊंची कीमत पर खरीदना पड़ेगा।
अरबों रुपये फंसे, बैंकों की टेंशन बढ़ीरूस पर लगे इन प्रतिबंधों से न सिर्फ आयात प्रभावित होगा, बल्कि भारत की सरकारी कंपनियों की पहले से फंसी रकम भी अटक गई है। ओएनजीसी, ऑयल इंडिया, बीपीसीएल और इंडियन ऑयल जैसी कंपनियों की रूस में करीब 1 अरब डॉलर (लगभग 8,300 करोड़ रुपये) की डिविडेंड राशि फंसी पड़ी है, जिसे वे अब निकाल नहीं पा रही हैं।
एक रिफाइनरी अधिकारी के अनुसार, “हम प्रतिबंधित संस्थाओं से कारोबार नहीं कर सकते। अगर ऐसा किया तो अमेरिकी बैंकों से जुड़ी हमारी फाइनेंसिंग और पेमेंट सिस्टम पर असर पड़ेगा।”
रिलायंस और नायरा एनर्जी पर बड़ा असरइस स्थिति का सबसे ज्यादा असर रिलायंस इंडस्ट्रीज और नायरा एनर्जी पर पड़ने वाला है। रिलायंस अपनी लगभग आधी तेल आपूर्ति रूस से करती है, जबकि नायरा पूरी तरह रूसी कच्चे तेल पर निर्भर है। गुरुवार को रिलायंस के शेयर 1% गिर गए, जबकि IOC, BPCL और HPCL के शेयरों में 2-3% तक गिरावट दर्ज की गई।
कंपनियों के लिए अब सबसे बड़ी समस्या भुगतान की प्रक्रिया है, क्योंकि बैंक इन ट्रांजेक्शनों को मंजूरी देने से बचेंगे। डॉलर के प्रभुत्व के कारण अमेरिका को तेल व्यापार पर सीधा नियंत्रण रहता है, और यहां तक कि जब भुगतान युआन या दिरहम में किया जाता है, तब भी डॉलर रूपांतरण से अमेरिका को उस पर नजर रखने का मौका मिलता है।
सरकारी कंपनियों पर भी असरसरकारी रिफाइनर भी इससे अछूते नहीं रहेंगे। भले ही वे रूस से तेल सीधे न खरीदें, लेकिन अगर किसी तीसरे देश से Rosneft या Lukoil के स्रोत वाला तेल आता है, तो बैंक ऐसे सौदों के भुगतान से मना कर सकते हैं। इस कारण दिसंबर और जनवरी के लिए भारतीय रिफाइनरी की योजना पर अनिश्चितता बढ़ गई है।
वैकल्पिक उपाय और उम्मीदरिफाइनरी अधिकारियों का मानना है कि रूस से मिलने वाला कच्चा तेल भारत की कुल आयात का करीब 20% हिस्सा है, इसलिए पूरी आपूर्ति रुक जाने के बावजूद इसका असर सीमित रह सकता है। एक अधिकारी ने कहा, “सप्लाई महंगी जरूर होगी, लेकिन हम संभाल लेंगे। अभी तेल की कीमतें 60 डॉलर प्रति बैरल के आस-पास हैं और रिफाइनिंग मार्जिन अच्छे हैं।”
हालांकि, निजी कंपनियों के लिए यह झटका गहरा साबित हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार में अचानक आई अनिश्चितता के चलते दिसंबर के लिए कच्चे तेल की बुकिंग कठिन हो गई है। उद्योग जगत को उम्मीद है कि आने वाले दिनों में अमेरिका कुछ छूट दे या रूस के साथ स्थिति में नरमी आए, ताकि ऊर्जा बाजार स्थिर हो सके।
(अस्वीकरण: विशेषज्ञों द्वारा दी गई सिफारिशें, सुझाव, विचार और राय उनके अपने हैं। ये इकोनॉमिक टाइम्स हिन्दी के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।)
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