विक्रांत निर्मला सिंह
जीएसटी परिषद ने टैक्स ढांचे में ऐतिहासिक सुधार को मंजूरी दे दी है। अब पूरे देश में केवल दो दरें 5% और 18% लागू होंगी। असल में इसकी पृष्ठभूमि में एक ओर वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल है, तो दूसरी ओर लंबे समय से लंबित एक अहम सुधार की जरूरत। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो साफ है कि आज की अनिश्चित आर्थिक दुनिया में किसी भी देश की मजबूती का पहला आधार उसकी घरेलू मांग और खपत होनी चाहिए। क्योंकि आज अमेरिका टैरिफ को हथियार बनाकर अपने हित में ट्रेड डील की कोशिश कर रहा है, जैसा उसने यूरोपीय संघ, जापान या वियतनाम आदि के साथ किया है।
लेकिन भारत ऐसे किसी भी समझौते पर तैयार नहीं है जो उसके किसानों, छोटे व्यापारियों और पशुपालकों के हितों को नुकसान पहुँचाए। ऐसे परिदृश्य में टैरिफ से उपजी चुनौतियों का सर्वोत्तम समाधान यही है कि हम घरेलू स्तर पर सुधारों के जरिए खपत, मांग और निवेश की श्रृंखला को गति दें।
इससे न केवल हमारी जीडीपी में वृद्धि बरकरार रहेगी, बल्कि बढ़ती मांग से निवेश और रोजगार का चक्र भी जरी रहेगा। यह स्थिरता हमें दुनिया में वैकल्पिक बाजारों की ओर बढ़ने का भी अवसर देगी। इसलिए जीएसटी सुधारों की घोषणा को केवल कर-संरचना में बदलाव नहीं, बल्कि एक नई अर्थव्यवस्था के निर्माण के रूप में देखना चाहिए। यह उस ‘डिरेगुलेशन’ का अगला पड़ाव है जिसकी नींव इस बार के बजट में रखी जा चुकी है।
जिस तरह 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी थी, उसी प्रकार अब हो रहा डिरेगुलेशन भी आने वाले वर्षों में बड़े बदलावों की शुरुआत करेगा। यह वह ठोस आधार बनेगा जिस पर आने वाले कई दशकों की भारतीय अर्थव्यवस्था खड़ी होगी।
टैक्स सुधारों से खपत और निवेश दोनों को लाभ भारत की कुल जीडीपी में उपभोग यानी खपत का हिस्सा लगभग 60% है। यह खपत बनी रहे, इसके लिए दो शर्तें सबसे अहम हैं: पहली, लोगों की आय लगातार बढ़े और दूसरी, महँगाई नियंत्रण में रहे। आय तभी बढ़ेगी जब देश में निवेश और उत्पादन को गति मिले और रोजगार के नए अवसर बनें। वहीं महँगाई पर काबू पाने के लिए अप्रत्यक्ष करों में कटौती सबसे प्रभावी उपायों में से एक मानी जाती है। इसी आर्थिक सोच के तहत सरकार ने इस साल डिरेगुलेशन की दिशा में दो बड़े सुधार किए हैं। पहला, ₹12 लाख तक आयकर छूट, जिससे लोगों की जेब में अधिक पैसा बचेगा और उपभोग तथा माँग दोनों में वृद्धि होगी।
दूसरा, ‘नेक्स्ट-जनरेशन जीएसटी सुधार’, जो कर ढाँचे को सरल बनाता है। जहाँ पहले जीएसटी में 5%, 12%, 18% और 28% की बहु-दर संरचना थी, अब इसे घटाकर केवल दो मानक दरों 5% और 18% तक सीमित किया जा रहा है।यानी 12% स्लैब की अधिकांश वस्तुएँ 5% पर और 28% स्लैब की अधिकतर वस्तुएँ 18% पर आ जाएँगी। इस बदलाव का सीधा असर यह होगा कि रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएँ सस्ती होंगी, महँगाई पर लगाम लगेगी और खपत को निर्णायक रफ्तार मिलेगी। जैसा कि जॉन मेनार्ड कीन्स का ‘उपभोग-सिद्धांत’ कहता है, लोगों की अतिरिक्त आय का बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च होता है, जिससे कुल माँग बढ़ती है। परिणामस्वरूप उत्पादन और रोजगार को गति मिलती है और पूरी अर्थव्यवस्था का चक्र गतिमान रहता है।
लेकिन यहाँ दो महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं, पहला यदि यह सुधार इतना व्यापक है तो जीएसटी लागू होने के साथ ही क्यों नहीं किया गया, और दूसरा, इससे होने वाली राजस्व-हानि कहीं आवश्यक बड़े प्रोजेक्ट्स की रफ्तार को धीमा तो नहीं कर देगी? पहले सवाल का उत्तर यह है कि जब जीएसटी 2017 में लागू हुआ था, तब शुरुआती वर्षों में राजस्व स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बहु-दर संरचना रखना एक आवश्यक समझौता था, ताकि राज्यों को हो रही राजस्व-घटोतरी की भरपाई की जा सके। अब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था का कर-आधार काफी विस्तृत हो चुका है, ऐसे में जीएसटी दरों का सरलीकरण (रेशनलाइज़ेशन) न केवल कर प्रणाली को आसान बनाएगा बल्कि दरों से जुड़े विवाद और भ्रम को भी कम करेगा। हालांकि यह भी सच है कि शुरुआती दौर में इससे राजस्व पर दबाव पड़ेगा। अनुमान है कि जीएसटी सुधारों के चलते अनुमानतः ₹50,000 करोड़ (0.15% जीडीपी) की राजस्व-हानि होगी। लेकिन आर्थिक अध्यन बताते हैं कि टैक्स दरों में सरलीकरण से समय के साथ कर-संग्रह न केवल वापस बढ़ता है बल्कि पहले से अधिक हो जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि जब नियम सरल होते हैं, कर-दरें तर्कसंगत रहती हैं और लालफीताशाही घटती है, तो कर चोरी की प्रवृत्ति स्वतः कम होती है और करदाता आधार बढ़ता है।
इसी सन्दर्भ में ‘लैफर कर्व सिद्धांत’ महत्वपूर्ण है। यह सिद्धांत कहता है कि यदि कर-दरें बहुत ऊँची हों तो लोग कर चोरी या कर से बचाव के रास्ते खोजने लगते हैं, जिससे राजस्व घट जाता है; और यदि कर-दरें बहुत कम हों तो भी पर्याप्त राजस्व नहीं मिलता। लेकिन एक आदर्श मध्यम कर-दर पर राजस्व सर्वोच्च होता है। इस दृष्टिकोण से देखें तो भारत अपने इनकम टैक्स और जीएसटी सुधारों के जरिए न केवल एक संतुलित कर-दर की ओर बढ़ रहा है बल्कि डिरेगुलेशन के माध्यम से नियमों को सरल बनाकर अनुपालन लागत भी घटा रहा है। ऐसे में यह संभावना है कि निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था की गतिविधियाँ तेज होंगी और कर-संग्रह भी बढ़ेगा, क्योंकि कर का कम बोझ उपभोग और निवेश दोनों को प्रोत्साहित करेगा। अनुमान है कि यदि टैरिफ और वैश्विक अस्थिरता के कारण जीडीपी वृद्धि दर में 1 प्रतिशत की गिरावट आती है, तो ये सुधार उतनी ही जीडीपी बढ़ाने में कारगर साबित होंगे। यानी भारत अपनी वृद्धि को स्थिर बनाए रखने में कामयाब रहेगा।
‘डिरेगुलेशन’ के जरिए नव-उदारीकरण 1991 के उदारीकरण के बाद आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया लगातार आगे बढ़ती रही, फिर भी भारत वैश्विक ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांकों में शीर्ष स्थानों तक नहीं पहुँच सका। इसका कारण रहा कि सुधारों के बावजूद अनावश्यक नियम-क़ानून, लाइसेंस और धीमी नौकरशाही ने व्यापार सुगमता को प्रभावित रखा। यही स्थिति जीएसटी के साथ भी देखने को मिली। ‘एक देश, एक कर’ व्यवस्था का सपना जटिल बहु-दर संरचना और उलझनों में ऐसा फँसा कि यह आम लोगों के लिए सरल कर प्रणाली नहीं बन पाया। अंततः बजट 2025 में सरकार ने नियंत्रक की जगह सुविधादाता की भूमिका अपनाने हुए डिरेगुलेशन की दिशा में निर्णायक शुरुआत की। इसी सोच से जन विश्वास अभियान 2.0 की घोषणा हुई।
पहले जन विश्वास अधिनियम 2023 के तहत कारोबारी गतिविधियों से जुड़े 180 छोटे अपराधों को अपराधमुक्त कर केवल आर्थिक दंड तक सीमित किया गया था। अब जन विश्वास बिल 2.0 से इस एजेंडे को और आगे बढ़ाते हुए 288 धाराओं को अपराधमुक्त किया गया है और 67 धाराओं में ईज़ ऑफ लिविंग को ध्यान में रखते हुए संशोधन किया गया है। इन प्रयासों का उद्देश्य यही है कि तकनीकी उल्लंघनों पर उद्यमियों को आपराधिक कार्रवाई का भय न रहे और वे निडर होकर काम कर सकें। पिछले दस वर्षों में ऐसे 40,000 से अधिक अनुपालनों को समाप्त किया है जो या तो अप्रासंगिक हो चुके थे या व्यापार पर बोझ डाल रहे थे।
लेकिन, डिरेगुलेशन की यह प्रक्रिया केवल कानूनी सुधारों तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को खोलने तक विस्तारित है। सरकार रक्षा और बीमा जैसे क्षेत्रों में भी खुले बाज़ार को प्रोत्साहित कर रही है। हाल के बजट में बीमा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गई है, जिससे इस क्षेत्र में पूंजी और तकनीक का प्रवाह होगा, प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उपभोक्ता को अधिक विकल्प तथा बेहतर सेवाएँ मिलेंगी। इसी तरह राजमार्ग, रेलवे और बंदरगाहों में निजी निवेश बढ़ाने के लिए लगभग दस लाख करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों के मोनेटाइजेशन का लक्ष्य रखा गया है। डिरेगुलेशन के ये तमाम प्रयास नव-उदारीकरण की कहानी हैं जो एक नई अर्थव्यवस्था को आकार दे रहे हैं।
उपभोग, निवेश और उद्यमशीलता की त्रिवेणी पर तैयार हो रही इस नई अर्थव्यवस्था का असर आने वाले वर्षों में दिखेगा, जब जीएसटी दरों में कटौती से रोजमर्रा की चीज़ें सस्ती होंगी और मध्यम वर्ग की जेब में बचत बढ़ेगी। यही बचत नए घरों, उपभोक्ता वस्तुओं और यात्रा-पर्यटन पर खर्च होगी और माँग का नया चक्र शुरू करेगी। बढ़ती माँग उद्योगों को भरोसा देगी कि बाज़ार स्थिर है और सरकार नीतिगत रूप से साथ खड़ी है। विदेशी कंपनियाँ निवेश की ओर आकर्षित होंगी और भारतीय कंपनिया और स्टार्टअप्स अनुपालन के बोझ से मुक्त होकर नवाचार में छलांग लगाएंगे।
लेकिन, चुनौती अब केवल क्रियान्वयन की है। केंद्र और राज्यों को मिलकर प्रक्रियाएँ आसान करनी होंगी। केंद्र को जीएसटी दरों में बदलाव से होने वाली संभावित राजस्व-हानि की भरपाई का भरोसा राज्यों को देना होगा और राज्यों को भी अपने स्तर पर नियमों को सरल बनाकर निवेश-अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा। क्योंकि अंततः हर सुधार से विकास की कहानी इन्हीं से होकर गुजरनी है। यदि यह तालमेल कायम रहा, तो सात से आठ प्रतिशत की सतत आर्थिक वृद्धि संभव होगी।
(लेखक विक्रांत निर्मला सिंह, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) राउरकेला में शोधार्थी हैं तथा ‘फाइनैन्स एंड इकनॉमिक्स थिंक काउन्सिल’ के संस्थापक एवं अध्यक्ष हैं।)
जीएसटी परिषद ने टैक्स ढांचे में ऐतिहासिक सुधार को मंजूरी दे दी है। अब पूरे देश में केवल दो दरें 5% और 18% लागू होंगी। असल में इसकी पृष्ठभूमि में एक ओर वैश्विक आर्थिक उथल-पुथल है, तो दूसरी ओर लंबे समय से लंबित एक अहम सुधार की जरूरत। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो साफ है कि आज की अनिश्चित आर्थिक दुनिया में किसी भी देश की मजबूती का पहला आधार उसकी घरेलू मांग और खपत होनी चाहिए। क्योंकि आज अमेरिका टैरिफ को हथियार बनाकर अपने हित में ट्रेड डील की कोशिश कर रहा है, जैसा उसने यूरोपीय संघ, जापान या वियतनाम आदि के साथ किया है।
लेकिन भारत ऐसे किसी भी समझौते पर तैयार नहीं है जो उसके किसानों, छोटे व्यापारियों और पशुपालकों के हितों को नुकसान पहुँचाए। ऐसे परिदृश्य में टैरिफ से उपजी चुनौतियों का सर्वोत्तम समाधान यही है कि हम घरेलू स्तर पर सुधारों के जरिए खपत, मांग और निवेश की श्रृंखला को गति दें।
इससे न केवल हमारी जीडीपी में वृद्धि बरकरार रहेगी, बल्कि बढ़ती मांग से निवेश और रोजगार का चक्र भी जरी रहेगा। यह स्थिरता हमें दुनिया में वैकल्पिक बाजारों की ओर बढ़ने का भी अवसर देगी। इसलिए जीएसटी सुधारों की घोषणा को केवल कर-संरचना में बदलाव नहीं, बल्कि एक नई अर्थव्यवस्था के निर्माण के रूप में देखना चाहिए। यह उस ‘डिरेगुलेशन’ का अगला पड़ाव है जिसकी नींव इस बार के बजट में रखी जा चुकी है।
जिस तरह 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी थी, उसी प्रकार अब हो रहा डिरेगुलेशन भी आने वाले वर्षों में बड़े बदलावों की शुरुआत करेगा। यह वह ठोस आधार बनेगा जिस पर आने वाले कई दशकों की भारतीय अर्थव्यवस्था खड़ी होगी।
टैक्स सुधारों से खपत और निवेश दोनों को लाभ भारत की कुल जीडीपी में उपभोग यानी खपत का हिस्सा लगभग 60% है। यह खपत बनी रहे, इसके लिए दो शर्तें सबसे अहम हैं: पहली, लोगों की आय लगातार बढ़े और दूसरी, महँगाई नियंत्रण में रहे। आय तभी बढ़ेगी जब देश में निवेश और उत्पादन को गति मिले और रोजगार के नए अवसर बनें। वहीं महँगाई पर काबू पाने के लिए अप्रत्यक्ष करों में कटौती सबसे प्रभावी उपायों में से एक मानी जाती है। इसी आर्थिक सोच के तहत सरकार ने इस साल डिरेगुलेशन की दिशा में दो बड़े सुधार किए हैं। पहला, ₹12 लाख तक आयकर छूट, जिससे लोगों की जेब में अधिक पैसा बचेगा और उपभोग तथा माँग दोनों में वृद्धि होगी।
दूसरा, ‘नेक्स्ट-जनरेशन जीएसटी सुधार’, जो कर ढाँचे को सरल बनाता है। जहाँ पहले जीएसटी में 5%, 12%, 18% और 28% की बहु-दर संरचना थी, अब इसे घटाकर केवल दो मानक दरों 5% और 18% तक सीमित किया जा रहा है।यानी 12% स्लैब की अधिकांश वस्तुएँ 5% पर और 28% स्लैब की अधिकतर वस्तुएँ 18% पर आ जाएँगी। इस बदलाव का सीधा असर यह होगा कि रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएँ सस्ती होंगी, महँगाई पर लगाम लगेगी और खपत को निर्णायक रफ्तार मिलेगी। जैसा कि जॉन मेनार्ड कीन्स का ‘उपभोग-सिद्धांत’ कहता है, लोगों की अतिरिक्त आय का बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च होता है, जिससे कुल माँग बढ़ती है। परिणामस्वरूप उत्पादन और रोजगार को गति मिलती है और पूरी अर्थव्यवस्था का चक्र गतिमान रहता है।
लेकिन यहाँ दो महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं, पहला यदि यह सुधार इतना व्यापक है तो जीएसटी लागू होने के साथ ही क्यों नहीं किया गया, और दूसरा, इससे होने वाली राजस्व-हानि कहीं आवश्यक बड़े प्रोजेक्ट्स की रफ्तार को धीमा तो नहीं कर देगी? पहले सवाल का उत्तर यह है कि जब जीएसटी 2017 में लागू हुआ था, तब शुरुआती वर्षों में राजस्व स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बहु-दर संरचना रखना एक आवश्यक समझौता था, ताकि राज्यों को हो रही राजस्व-घटोतरी की भरपाई की जा सके। अब जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था का कर-आधार काफी विस्तृत हो चुका है, ऐसे में जीएसटी दरों का सरलीकरण (रेशनलाइज़ेशन) न केवल कर प्रणाली को आसान बनाएगा बल्कि दरों से जुड़े विवाद और भ्रम को भी कम करेगा। हालांकि यह भी सच है कि शुरुआती दौर में इससे राजस्व पर दबाव पड़ेगा। अनुमान है कि जीएसटी सुधारों के चलते अनुमानतः ₹50,000 करोड़ (0.15% जीडीपी) की राजस्व-हानि होगी। लेकिन आर्थिक अध्यन बताते हैं कि टैक्स दरों में सरलीकरण से समय के साथ कर-संग्रह न केवल वापस बढ़ता है बल्कि पहले से अधिक हो जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि जब नियम सरल होते हैं, कर-दरें तर्कसंगत रहती हैं और लालफीताशाही घटती है, तो कर चोरी की प्रवृत्ति स्वतः कम होती है और करदाता आधार बढ़ता है।
इसी सन्दर्भ में ‘लैफर कर्व सिद्धांत’ महत्वपूर्ण है। यह सिद्धांत कहता है कि यदि कर-दरें बहुत ऊँची हों तो लोग कर चोरी या कर से बचाव के रास्ते खोजने लगते हैं, जिससे राजस्व घट जाता है; और यदि कर-दरें बहुत कम हों तो भी पर्याप्त राजस्व नहीं मिलता। लेकिन एक आदर्श मध्यम कर-दर पर राजस्व सर्वोच्च होता है। इस दृष्टिकोण से देखें तो भारत अपने इनकम टैक्स और जीएसटी सुधारों के जरिए न केवल एक संतुलित कर-दर की ओर बढ़ रहा है बल्कि डिरेगुलेशन के माध्यम से नियमों को सरल बनाकर अनुपालन लागत भी घटा रहा है। ऐसे में यह संभावना है कि निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था की गतिविधियाँ तेज होंगी और कर-संग्रह भी बढ़ेगा, क्योंकि कर का कम बोझ उपभोग और निवेश दोनों को प्रोत्साहित करेगा। अनुमान है कि यदि टैरिफ और वैश्विक अस्थिरता के कारण जीडीपी वृद्धि दर में 1 प्रतिशत की गिरावट आती है, तो ये सुधार उतनी ही जीडीपी बढ़ाने में कारगर साबित होंगे। यानी भारत अपनी वृद्धि को स्थिर बनाए रखने में कामयाब रहेगा।
‘डिरेगुलेशन’ के जरिए नव-उदारीकरण 1991 के उदारीकरण के बाद आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया लगातार आगे बढ़ती रही, फिर भी भारत वैश्विक ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांकों में शीर्ष स्थानों तक नहीं पहुँच सका। इसका कारण रहा कि सुधारों के बावजूद अनावश्यक नियम-क़ानून, लाइसेंस और धीमी नौकरशाही ने व्यापार सुगमता को प्रभावित रखा। यही स्थिति जीएसटी के साथ भी देखने को मिली। ‘एक देश, एक कर’ व्यवस्था का सपना जटिल बहु-दर संरचना और उलझनों में ऐसा फँसा कि यह आम लोगों के लिए सरल कर प्रणाली नहीं बन पाया। अंततः बजट 2025 में सरकार ने नियंत्रक की जगह सुविधादाता की भूमिका अपनाने हुए डिरेगुलेशन की दिशा में निर्णायक शुरुआत की। इसी सोच से जन विश्वास अभियान 2.0 की घोषणा हुई।
पहले जन विश्वास अधिनियम 2023 के तहत कारोबारी गतिविधियों से जुड़े 180 छोटे अपराधों को अपराधमुक्त कर केवल आर्थिक दंड तक सीमित किया गया था। अब जन विश्वास बिल 2.0 से इस एजेंडे को और आगे बढ़ाते हुए 288 धाराओं को अपराधमुक्त किया गया है और 67 धाराओं में ईज़ ऑफ लिविंग को ध्यान में रखते हुए संशोधन किया गया है। इन प्रयासों का उद्देश्य यही है कि तकनीकी उल्लंघनों पर उद्यमियों को आपराधिक कार्रवाई का भय न रहे और वे निडर होकर काम कर सकें। पिछले दस वर्षों में ऐसे 40,000 से अधिक अनुपालनों को समाप्त किया है जो या तो अप्रासंगिक हो चुके थे या व्यापार पर बोझ डाल रहे थे।
लेकिन, डिरेगुलेशन की यह प्रक्रिया केवल कानूनी सुधारों तक सीमित नहीं है, बल्कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को खोलने तक विस्तारित है। सरकार रक्षा और बीमा जैसे क्षेत्रों में भी खुले बाज़ार को प्रोत्साहित कर रही है। हाल के बजट में बीमा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गई है, जिससे इस क्षेत्र में पूंजी और तकनीक का प्रवाह होगा, प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और उपभोक्ता को अधिक विकल्प तथा बेहतर सेवाएँ मिलेंगी। इसी तरह राजमार्ग, रेलवे और बंदरगाहों में निजी निवेश बढ़ाने के लिए लगभग दस लाख करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों के मोनेटाइजेशन का लक्ष्य रखा गया है। डिरेगुलेशन के ये तमाम प्रयास नव-उदारीकरण की कहानी हैं जो एक नई अर्थव्यवस्था को आकार दे रहे हैं।
उपभोग, निवेश और उद्यमशीलता की त्रिवेणी पर तैयार हो रही इस नई अर्थव्यवस्था का असर आने वाले वर्षों में दिखेगा, जब जीएसटी दरों में कटौती से रोजमर्रा की चीज़ें सस्ती होंगी और मध्यम वर्ग की जेब में बचत बढ़ेगी। यही बचत नए घरों, उपभोक्ता वस्तुओं और यात्रा-पर्यटन पर खर्च होगी और माँग का नया चक्र शुरू करेगी। बढ़ती माँग उद्योगों को भरोसा देगी कि बाज़ार स्थिर है और सरकार नीतिगत रूप से साथ खड़ी है। विदेशी कंपनियाँ निवेश की ओर आकर्षित होंगी और भारतीय कंपनिया और स्टार्टअप्स अनुपालन के बोझ से मुक्त होकर नवाचार में छलांग लगाएंगे।
लेकिन, चुनौती अब केवल क्रियान्वयन की है। केंद्र और राज्यों को मिलकर प्रक्रियाएँ आसान करनी होंगी। केंद्र को जीएसटी दरों में बदलाव से होने वाली संभावित राजस्व-हानि की भरपाई का भरोसा राज्यों को देना होगा और राज्यों को भी अपने स्तर पर नियमों को सरल बनाकर निवेश-अनुकूल वातावरण तैयार करना होगा। क्योंकि अंततः हर सुधार से विकास की कहानी इन्हीं से होकर गुजरनी है। यदि यह तालमेल कायम रहा, तो सात से आठ प्रतिशत की सतत आर्थिक वृद्धि संभव होगी।
(लेखक विक्रांत निर्मला सिंह, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) राउरकेला में शोधार्थी हैं तथा ‘फाइनैन्स एंड इकनॉमिक्स थिंक काउन्सिल’ के संस्थापक एवं अध्यक्ष हैं।)
You may also like
सोने से पहले` अगर आप भरेंगे बाल्टी तो सुबह होगा यह चमत्कार
बेटी की पहली` जॉब से खुश था पिता, फिर हाथ लगी बॉस की चिट्ठी तो भड़क गया, छुड़वा दी नौकरी
Versova-Bandra Sea Link: वर्सोवा-बांद्रा सी लिंक से जुड़ी अहम खबर, लागत में 6788 करोड़ का इजाफा, क्या होंगे बदलाव? जानें पूरा रूट
मॉर्निंग की ताजा खबर, 9 सितंबर: नेपाल में बवाल, 19 की मौत... उपराष्ट्रपति पद के लिए आज चुनाव, iPhone 17 की लॉन्चिंग भी... पढ़ें अपडेट्स
Stocks to Buy: आज Bharat Forge और JP Power समेत इन शेयरों से होगा फायदा, तेजी के संकेत