नई दिल्ली: अलग-अलग राज्यों में आरोपियों और अपराधियों के खिलाफ की जा रही बुलडोजर कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट का सख्त रुख दिखाता है कि प्रशासनिक मशीनरी को किसी भी रूप में और किसी भी स्तर पर कानूनी प्रक्रियाओं के निर्वाह के दायित्व से मुक्त नहीं किया जा सकता। कुछ वर्षों से बुलडोजर को अपराध और अपराधियों के खिलाफ जीरो टॉलरेंस पॉलिसी के प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करने का ट्रेंड बढ़ता जा रहा था, जिससे कई तरह के सवाल खड़े हो रहे थे। ‘त्वरित न्याय’ का संदेशयह ट्रेंड भले उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ हो, इसका इस्तेमाल अन्य राज्यों में भी शुरू हो गया था। गैर-बीजेपी सरकारें भी ‘त्वरित न्याय’ का संदेश देने के लिए इस तरह की कार्रवाई का इस्तेमाल करने से खुद को नहीं रोक सकीं। गैरकानूनी निर्माण का तर्क हालांकि इस तरह की कार्रवाई के पक्ष में हर जगह दलील यही दी जा रही थी कि सरकारी बुलडोजर अवैध निर्माणों को ही निशाना बना रहे हैं। लेकिन जिस तरह से किसी अपराध में नाम आने के बाद यह कार्रवाई की जाती थी, उससे साफ था कि मामला सिर्फ अवैध निर्माण का नहीं था। बारीकियों पर ध्यान ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख की बारीकियां खास तौर पर गौर करने लायक हैं। कोर्ट ने पहले तो यह साफ किया कि इस आधार पर किसी का भी घर नहीं ढहाया जा सकता कि वह किसी मामले में आरोपी है। यहां तक कि अगर कोई अपराधी साबित हो जाता है, तब भी उसका घर नहीं गिराया जा सकता। फिर सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि वह किसी भी रूप में गैर-कानूनी निर्माण का बचाव नहीं करने के मूड में नहीं है। मनमानी मंजूर नहीं असल में बड़ा सवाल कानूनी प्रक्रियाओं के पालन का और हर व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा का है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग मामलों के मेरिट में जाने के बजाय यह सुनिश्चित करना ज्यादा जरूरी समझा कि मनमाने ढंग से बुलडोजर कार्रवाई न की जा सके। पूरे देश के लिए एक गाइडलाइन बनाने का फैसला इस लिहाज से अहम है। भय कानून का हो हालांकि अपराधी तत्वों के बीच एक हद तक भय पैदा करने की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इस क्रम में नागरिकों के बीच पुलिस-प्रशासन का भय पैदा हो जाए, यह स्थिति भी स्वीकार नहीं की जा सकती। अगर भय हो भी तो कानून का होना चाहिए, सरकारी तंत्र का नहीं। सुप्रीम कोर्ट के संतुलित रुख ने इस मामले में सभी पक्षों के लिए कानूनी सीमा को रेखांकित करने का सराहनीय प्रयास किया है।
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