नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से देशवासियों को दिवाली गिफ्ट देने का वादा किया था। उन्होंने अपना वादा पूरा कर दिया है। जीएसटी काउंसिल ने अधिकांश चीजों पर टैक्स कम कर दिया है जो 22 सितंबर से लागू होगा। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नवभारत टाइम्स के साथ इंटरव्यू में कहा कि जीएसटी रेट घटाए जाने का फायदा आम लोगों और उपभोक्ताओं तक पहुंचे, इस पर सरकार नजर रखेगी। वित्त मंत्री ने साथ ही कहा कि इतने बड़े सुधार का काम पूरे होने पर उन्हें ऐसा लगा, जैसे उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स का एग्जाम सम्मानजनक तरीके से पास कर लिया है। पेश हैं इस बातचीत के मुख्य अंश:
स्लैब्स घटे हैं, प्रोसेस सरल बनाया गया है। यह काफी लंबी एक्सरसाइज रही होगी। यह काम कैसे हुआ?
यह काम कोई 10 दिनों पहले शुरू नहीं हुआ था। मंत्रियों के समूह का काम करीब डेढ़ साल पहले शुरू हुआ था। रेट रेशनलाइजेशन कमेटी के पहले चेयरमैन कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई थे। उनका टर्म पूरा होने पर बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी चेयरमैन बने। जैसलमेर में जीएसटी काउंसिल की पिछली मीटिंग में भी कुछ चर्चा हुई थी, लेकिन उसके बाद कोई प्रगति नहीं हुई। जैसलमेर के पहले और बाद में इंश्योरेंस का मुद्दा भी था, जो संसद में भी आया।
इस तरह रेट रेशनलाइजेशन पर टुकड़ों टुकड़ों में काम हो रहा था। करीब 8 महीने पहले पीएम ने मुझसे पूछा कि जीएसटी में कुछ काम करेंगे? उन्होंने मुझसे ईज ऑफ कंप्लायंस के लिहाज से इस पर गौर करने को कहा। कंपनियों को फाइलिंग में बहुत दिक्कत थी, रजिस्ट्रेशन में काफी समय लगता था। जिस तरह उन्होंने इनकम टैक्स के बारे में कहा था, उसी तरह जीएसटी रेट्स के बारे में कहा था। यह जैसलमेर काउंसिल मीटिंग से पहले की बात है।
फिर बजट की तैयारी में टैक्स से जुड़े मसलों पर चर्चा के दौरान पीएम ने पूछा था कि डायरेक्ट टैक्स से जुड़े मुद्दों पर बात कर रहे हैं, आप उसमें भी कुछ कर रही हैं। उसके बाद मैंने बजट सेशन पूरा होने का इंतजार किया। उसके बाद इस पर काम शुरू किया। बजट पेश होने के दिन 1 फरवरी से मैं पूरी तरह इस पर जुट गई और जीएसटी के हर आइटम पर गहराई से विचार करना शुरू किया।
इन सुधारों में आपका फोकस किन चीजों पर था?
मेरा नजरिया बिल्कुल साफ था कि इस पर केवल रेवेन्यू के लिहाज से विचार नहीं किया जा सकता। इस पर गुड्स के ट्रेडिशनल अरेंजमेंट यानी चैप्टर्स, क्लासिफिकेशन वगैरह के लिहाज से भी गौर नहीं किया जा सकता। यह सब कॉमर्स के लिहाज से तो बहुत अच्छा है, लेकिन मेरी सोच यह है कि टैक्सेशन पर अलग नजरिए से विचार करना चाहिए। क्या हम एक तरह के गुड्स पर एक टैक्स लगा रहे हैं या अलग-अलग सेक्शन को अलग-अलग ट्रीटमेंट मिल रहा है? इस लिहाज से मैंने गुड्स की रीग्रुपिंग पर फोकस किया। इसका आधार बनाया कि इनमें अमीर हों या गरीब, उनके डेली यूज वाले आइटम कौन हैं। मिडल क्लास आइटम्स कौन से हैं यानी कि किसी के पास टीवी है, कार है, लेकिन वह बड़ा टीवी, बड़ी कार लेना चाहता है यानी एस्पिरेशनल आइटम्स।
इस तरह रीग्रुपिंग के लिए यूजर के नजरिए से गौर किया गया, न कि रेवेन्यू या ट्रेड के नजरिए से। हमने आम लोगों के लिहाज से सोचा। मिडल क्लास के लिहाज से सोचा, जो आगे बढ़ना चाहता है। किसानों के लिहाज से सोचा गया, जो हमारी इकॉनमी का बहुत अहम हिस्सा हैं। फिर एमएसएमई पर गौर किया गया, जो उपलब्ध कच्चे माल से उत्पादन करते हैं, लेकिन ऐसे कच्चे माल का भी उपयोग करते हैं, जिन पर इंटरनैशनल मार्केट में उतार-चढ़ाव का असर पड़ता है। फाइनल चीज देखी गई कि क्या इंडियन इकॉनमी में ऐसे अहम प्लेयर हैं, जिनकी राह एकोमोडेटिव टैक्स स्ट्रक्चर के जरिए आसान बनाई जा सकती है। इस तरह मैंने इन 5 पॉइंट्स के आधार पर रीग्रुपिंग की।
फिर मैं अधिकारियों से बार-बार सवाल करती रही कि किसी खास ग्रुप का टैक्स ट्रीटमेंट एक जैसा क्यों नहीं हो सकता। क्यों न कुछ चीजों को जीरो में ले जाया जाए? ब्यूरोक्रेसी की अपनी चिंताएं होती हैं, लेकिन नेता के रूप में काम करते वक्त हम सिर्फ पब्लिक को ध्यान में रखकर कदम उठाते हैं। इसलिए मैंने बार-बार सवाल किए। कहती रही कि समस्या नहीं, समाधान लेकर आएं। सॉल्यूशन टिकाऊ है या नहीं, क्या यह प्रावधान कोर्ट में सही साबित होगा। इस तरह एक-एक बिंदु पर मैंने गहराई से विचार किया।ईमानदारी से कहूं तो बहुत मेहनत हुई, लेकिन यह काम पूरा होने पर ऐसा लगा, जैसे मैंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स का एग्जाम सम्मानजनक तरीके से पास कर लिया। यह काम पूरा करने पर मुझे बहुत संतोष है। एक नई ऊर्जा महसूस हो रही है।
क्या रेट में बदलाव पर सवाल उठे?
मैंने किसी एक कैटिगरी में सेम रेट रखने के मुद्दे पर विचार किया। मैंने सवाल किया कि 12% रखने का क्या औचित्य है? तब देखा गया कि 67% रेवेन्यू 18% से आता है। हमने देखा कि क्या वहां ऐसे आइटम हैं, जिनको इसमें होना चाहिए। उनको हटाकर 5% में होना चाहिए। इसी तरह मैंने देखा कि 12% स्लैब से करीब 7% रेवेन्यू आता है। यहां से कुछ चीजों को 5 और 18% में डाला गया। काफी बड़ा हिस्सा 5% स्लैब में आ गया। इस पर किसी को ऐतराज नहीं हुआ। सबने सहमति जताई। यही वजह है कि आज 99% आइटम्स या तो जीरो या 5% या 18% में हैं।
इससे क्या फर्क पड़ेगा?
अब मेरिट और स्टैंडर्ड, दो रेट होंगे। इसी के बीच में करना होगा। आपको लग रहा है कि इसमें ज्यादा टैक्स ले सकते हैं तो 18% में रख दो और कम में आना है तो 5% में रख दो। इस तरह की जो प्रेडिक्टिबिलिटी आई है, यह जीएसटी के लिए बड़ी चीज होगी। कोई आइटम 40% में जाएगा ही नहीं क्योंकि जब तक वह डीमेरिट गुड्स न हो, तब तक ऐसा नहीं होगा। टोबैको में ही कुछ दूसरा आ रहा हो, तो जाएगा। इसमें बारगेन करने के लिए कुछ बचा नहीं है।
चैप्टराइजेशन का मामला तो ट्रेड से जुड़ी ग्रेडिंग के लिए है। किसी दूसरे देश के साथ अलाइन करने के लिए है, नहीं तो निर्यात में असर पड़ता है। उनके लिए काम की चीज है वह। जनता की जरूरत की चीज नहीं है। इसलिए मैंने पूरी चीज को बिल्कुल अलग नजरिए से देखा। इसमें काफी समय भी लगा। 1 फरवरी 2025 से मई के मध्य तक, मैंने इसे पूरा किया। तब मैंने सोचा कि पीएम को मैं पूरे कॉन्फिडेंस से बता सकती हूं कि इस तरह का प्रस्ताव मैंने क्यों दिया। मेरा फ्रेमवर्क तैयार है और उसका एक्सप्लैनेशन भी तैयार है। कौन सा आइटम कहा जाएगा, उसका खुद मैंने अध्ययन किया है। इस तरह प्रस्ताव आगे बढ़ा और मीटिंग में गया।
आपने नया इनकम टैक्स लॉ बनाया, डायरेक्ट टैक्स का बोझ घटाया और अब यह जीएसटी का काम पूरा किया। किसमें आपको सबसे ज्यादा संतुष्टि हुई?
सबमें संतोष मिला। 12 लाख रुपये की सालाना आमदनी पर टैक्स छूट देना भी चुनौती का काम था, लेकिन यह जीएसटी वाला काम ज्यादा चुनौतीपूर्ण था क्योंकि यह केवल भारत सरकार से जुड़ी बात नहीं थी। इसे मुझे जीएसटी काउंसिल में ले जाना था, जहां सभी राज्यों के वित्त मंत्री बैठते हैं। काम में भी ज्यादा चुनौती थी और पारित करने में भी ज्यादा चुनौती थी।
विपक्ष जीएसटी रेट के मुद्दे पर आपको कई बार निशाने पर लेता रहा है, ज्यादा टैक्स रेट की बात करता रहा है। काउंसिल में सभी राज्यों में सहमति बनाना कितना चुनौतीपूर्ण था क्योंकि कुछ राज्यों ने रेवेन्यू लॉस का मुद्दा भी उठाया था?
मुझे सबको कन्विंस करना ही था। मुश्किल यह थी कि सभी यह मान रहे थे कि यह पीपल फ्रेंडली कदम है, आम जनता के लिए है, गरीबों के हित में है। लेकिन आगे भी बढ़ना नहीं देना चाहते थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अगर जनता के हित में टैक्स में कटौती हो रही है तो फिर संकोच क्यों? आगे बढ़िए, साथ दीजिए। फिर मुझे यह भी समझ में आया कि वे एक धर्मसंकट की स्थिति में हैं। एक मंत्री लगातार कह रहे थे कि स्टेट के रेवेन्यू का क्या होगा? मैं मानती हूं कि धर्मसंकट है, लेकिन उससे बाहर निकलने की जिम्मेदारी भी हमारी है। ऐसा नहीं है कि केवल राज्यों के रेवेन्यू पर असर पड़ रहा है। केंद्र का रेवेन्यू भी है। क्या धर्मसंकट मेरे ऊपर नहीं है? यही धर्मसंकट इनकम टैक्स रिलीफ देने के समय भी था कि रेवेन्यू घट जाएगा। लेकिन जब पैसा जनता के हाथ में जाना है तो प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? हर पार्टी कहती है कि जनता के हित में काम करेंगे, यह स्कीम लाएंगे, वह स्कीम लाएंगे। मैंने कहा कि यहां तो स्कीम तैयार है। आप धर्मसंकट में ही उलझे रहेंगे तो समाधान कौन देगा? हालांकि मैं उनकी बात भी रखना चाहती हूं कि रेवेन्यू अगर निकट भविष्य में कम होता है तो वह एक इश्यू होगा, केवल आपका नहीं, मेरा भी। लेकिन क्या यह दलील सही होगी कदम रोके रखने के लिए?
केंद्र भरपाई करे, यह मसले पर आपकी क्या राय है?
रेवेन्यू कम होने के समय केंद्र सरकार भरपाई करे, ऐसा कहा गया। मैंने कहा कि मेरे पास यहां कोई अलग सूटकेस नहीं है। यहां तो सबका साझा है। सबकी ओर से रेवेन्यू आएगा, सबको मिलेगा। कम आएगा तो हम सबको उसको दोबारा भरपूर बनाने के लिए मेहनत करनी होगी। ऐसा नहीं होगा कि रेट कटौती हो गई, रेवेन्यू गिर जा रहा है तो केंद्र भरपाई करे। मैंने कहा कि यह सोच गलत है।
कोविड के समय 140 करोड़ लोगों का टीकाकरण हुआ। पीएम ने मुझे आदेश दिया था कि राज्यों से एक पैसा भी नहीं लेना है इसके लिए। जनता से एक पैसा लेना नहीं है। उसी साल से लेकर आज तक बिना रुकावट स्पेशल असिस्टेंस टु स्टेट्स फॉर कैपिटल इनवेस्टमेंट हो रही है। लगभग 8 लाख करोड़ रुपये गया है राज्यों को। इसको 50 साल तक वापस नहीं करना है, इंटरेस्ट नहीं भरना है।
इतना बड़ा बॉर्डर में संकट, वॉर, डिफेंस। इसकी कोई जिम्मेदारी राज्यों पर नहीं है। इसकी मैं शिकायत नहीं कर रही हूं, लेकिन उसका पूरा खर्च केंद्र पर है। जब राज्य कहीं न कहीं बोलते हैं कि केंद्र के लिए संसाधन जुटाने का तरीका अलग-अलग है, तो मेरी जिम्मेदारी भी यूनीक तरीके से हम पर भी है। मैं राज्यों से नहीं कहती कि पेट्रोल-डीजल से पैसा मुझे दो। अल्कोहल से हो रही कमाई में हिस्सा नहीं मांगती। इसलिए मैंने कहा कि समय आ गया है, कदम बढ़ा देना चाहिए।
क्या राजकोषीय लक्ष्यों पर आंच आ सकती है? क्या निर्यातकों के लिए कुछ करने की गुंजाइश बचेगी?
असर नहीं पड़ेगा। निर्यातकों के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं। पैकेज पर काम हो रहा है, जल्दी ही उसकी घोषणा भी होगी। उसमें इसके कारण असर नहीं पड़ेगा।
जीएसटी रेट में की गई कमी का फायदा ग्राहकों तक पहुंचे, कैसे सुनिश्चित होगा?
हम इंडस्ट्री से बात कर रहे हैं। कह रहे हैं कि वे इस रेट कट का फायदा लोगों को दें। नहीं करने की गुंजाइश ही नहीं है। फायदा देना ही होगा। हम उनसे इसका आश्वासन ले रहे हैं। उदाहरण के लिए, पब्लिक सेक्टर इंश्योरेंस कंपनियों ने कह दिया है कि वे फायदा लोगों को देंगी। प्राइवेट को भी इसी लाइन पर करना चाहिए। इसी तरह कई सेक्शंस में अलग-अलग मंत्रालयों से बात हो रही है। 22 सितंबर से पहले ही काम शुरू हो गया है और 22 सितंबर से मेरा पूरा ध्यान इस पर होगा।
ऑटो डीलर्स चिंता जता रहे हैं क्योंकि सेस अब खत्म हो गया है और वे एडिशनल टैक्स के अगेंस्ट इसे एडजस्ट नहीं कर सकते। इसी तरह इंश्योरेंस कंपनियों की भी चिंता है ITC को लेकर। क्या इसको रिव्यू करने का स्कोप है?
कुछ ट्रांजिशनल अरेंजमेंट किया जाएगा। बोर्ड इस पर काम कर रहा है। वे एक क्लैरिफिकेशन जारी करेंगे।
जीएसटी में किए गए सुधारों से ग्रोथ और इंफ्लेशन पर इस कदम का क्या असर पड़ेगा, खासतौर से दुनियाभर में जो हो रहा है, उसको देखते हुए?
हमने वैश्विक स्थिति के बारे में सोचकर यह काम नहीं किया है। यह भी नहीं है कि टैरिफ की वजह से बहुत दबाव है, इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं। यह काम मैं पिछले करीब 8 महीनों से बहुत सक्रियता से कर रही थी। उससे पहले मंत्रियों का समूह डेढ़ साल से कर रहा था। एक समय आना ही था कि जीएसटी से हमने जो सबक सीखा, उसके आधार पर इसका एक नया वर्जन तैयार किया जाए। तो अभी कर रहे हैं। न्यू एज जीएसटी करना ही था। यह अमेरिकी टैरिफ के चलते नहीं हुआ है। रही इन्फ्लेशन, तो उसको कम करना आवश्यक है, इसलिए जीएसटी का काम तुरंत करो, ऐसा भी नहीं है। हां, यह जरूर है कि इसके चलते महंगाई पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। वैसे महंगाई पहले ही बहुत कम हो चुकी है। इन्फ्लेशन को नियंत्रण में रखने में इसका काफी रोल होगा।
क्या प्राइवेट इनवेस्टमेंट में रफ्तार आएगी?
डिमांड बढ़ने और कंजम्पशन बढ़ने पर मौजूदा उत्पादन क्षमता को बढ़ाना होगा। नया इनवेस्टमेंट आएगा। इससे एक बहुत अच्छा साइकल शुरू होगा इकॉनमी के लिए। कंजम्पशन बढ़ने से इनवेस्टमेट बढ़ेगा, इसके चलते ज्यादा जॉब्स के मौके बनेंगे, लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ेगी। इस तरह साइकल चलता रहेगा।
कांग्रेस कह रही है कि वह लंबे समय से इसकी मांग कर रही थी और अब जाकर सरकार ने ध्यान दिया है। आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
उन्होंने प्रेस नोट ही देख लिया होता तो सब समझ में आ गया होता। उधर से कोई एक बात बोल रहा है तो कोई दूसरी बात। जो लोग इसे गब्बर सिंह टैक्स कहते थे, वे अब बोल रहे हैं कि यह सिंगल टैक्स नहीं है, वन नेशन वन टैक्स नहीं है। और जो दूसरे वित्त मंत्री रह चुके हैं, वह कह रहे हैं कि अच्छा तो हुआ है, लेकिन देर से हुआ। दरअसल बात यह समझने की है कि 2017 में रेट कैसे तय हुए। तब यह देखा गया कि राज्यों के एक्साइज में, वैट में जो भी हो, उसमें एक आइटम के लिए कौन सा रेट है। किसी का रेट 7% में था, तो हमने उसे 5% में लिया, 12% में नहीं रखा। इस तरह अगर कुछ आइटम पर 10% टैक्स था तो उसे 12% में ले गए। तो काम इस आधार पर किया गया कि राज्यों में एक आइटम के लिए अलग-अलग रूप में रेट थे, तो हमने उसे सबसे नजदीकी रेट में रखा, चाहे 5 हो, 12, 18 हो या 28 में। ये रैंडम नंबर नहीं थे। ये सब स्टेट्स से निकले हुए नंबर को जहां फिट करना था, वहां किया क्योंकि शुरुआती चरण था। अब हमने यूजर के लिहाज से सभी हाउसहोल्ड आइटम्स को रेशनलाइज किया और एक ही कैटिगरी में रखा है। वह भी समझ में नहीं आ रहा उनको। इन आठ वर्षों में हमने देखा कि क्लासिफिकेशन के चलते समस्या बढ़ रही है। इसको दूर किया गया है। उन लोगों को यह बात भी समझ नहीं आ रही है। भारत को बेहतर विपक्ष की जरूरत है। जो जनता को समझाने लायक भाषा में सच बोले, न कि गुमराह करे।
ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग अपग्रेड की है, लेकिन कुछ लोगों ने डेड इकॉनमी कहा है। इसको कैसे देख रही हैं?
मुझे किसी बाहरी व्यक्ति के कहे की कोई चिंता नहीं है, चाहे वह किसी राष्ट्र का प्रमुख हो या पीएम हो या प्रेसिडेंट का एडवाइजर हो। मैं बहुत दुखी हूं इस बात से कि भारत का कोई नागरिक उसी भाषा को अपनाकर गलत आरोप लगाए। यह तो भारत के लोगों का अपमान है। ऐसे लोगों को विदेश के लोगों को जवाब देना चाहिए कि हम तो दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली इकॉनमी हैं। तीसरे स्थान पर पहुंचने वाली इकॉनमी हैं। 50 बिलियन का ट्रेड सरप्लस है। विपक्ष को सरकार के लिए नहीं, तो जनता के लिए तो बोलना चाहिए, विदेश को मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए कि डेड इकॉनमी कैसे बोल रहे हो? कहीं भी देश में पूछिए कि क्या डेड इकॉनमी है। अगर ऐसा है तो क्या लोग दुकान बंद करके चले गए हैं। विदेश के लोगों के बोलने से मुझे दुख नहीं है। हमारे अपनों के ऐसा बोलने से दुख है।
स्लैब्स घटे हैं, प्रोसेस सरल बनाया गया है। यह काफी लंबी एक्सरसाइज रही होगी। यह काम कैसे हुआ?
यह काम कोई 10 दिनों पहले शुरू नहीं हुआ था। मंत्रियों के समूह का काम करीब डेढ़ साल पहले शुरू हुआ था। रेट रेशनलाइजेशन कमेटी के पहले चेयरमैन कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई थे। उनका टर्म पूरा होने पर बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी चेयरमैन बने। जैसलमेर में जीएसटी काउंसिल की पिछली मीटिंग में भी कुछ चर्चा हुई थी, लेकिन उसके बाद कोई प्रगति नहीं हुई। जैसलमेर के पहले और बाद में इंश्योरेंस का मुद्दा भी था, जो संसद में भी आया।
इस तरह रेट रेशनलाइजेशन पर टुकड़ों टुकड़ों में काम हो रहा था। करीब 8 महीने पहले पीएम ने मुझसे पूछा कि जीएसटी में कुछ काम करेंगे? उन्होंने मुझसे ईज ऑफ कंप्लायंस के लिहाज से इस पर गौर करने को कहा। कंपनियों को फाइलिंग में बहुत दिक्कत थी, रजिस्ट्रेशन में काफी समय लगता था। जिस तरह उन्होंने इनकम टैक्स के बारे में कहा था, उसी तरह जीएसटी रेट्स के बारे में कहा था। यह जैसलमेर काउंसिल मीटिंग से पहले की बात है।
फिर बजट की तैयारी में टैक्स से जुड़े मसलों पर चर्चा के दौरान पीएम ने पूछा था कि डायरेक्ट टैक्स से जुड़े मुद्दों पर बात कर रहे हैं, आप उसमें भी कुछ कर रही हैं। उसके बाद मैंने बजट सेशन पूरा होने का इंतजार किया। उसके बाद इस पर काम शुरू किया। बजट पेश होने के दिन 1 फरवरी से मैं पूरी तरह इस पर जुट गई और जीएसटी के हर आइटम पर गहराई से विचार करना शुरू किया।
इन सुधारों में आपका फोकस किन चीजों पर था?
मेरा नजरिया बिल्कुल साफ था कि इस पर केवल रेवेन्यू के लिहाज से विचार नहीं किया जा सकता। इस पर गुड्स के ट्रेडिशनल अरेंजमेंट यानी चैप्टर्स, क्लासिफिकेशन वगैरह के लिहाज से भी गौर नहीं किया जा सकता। यह सब कॉमर्स के लिहाज से तो बहुत अच्छा है, लेकिन मेरी सोच यह है कि टैक्सेशन पर अलग नजरिए से विचार करना चाहिए। क्या हम एक तरह के गुड्स पर एक टैक्स लगा रहे हैं या अलग-अलग सेक्शन को अलग-अलग ट्रीटमेंट मिल रहा है? इस लिहाज से मैंने गुड्स की रीग्रुपिंग पर फोकस किया। इसका आधार बनाया कि इनमें अमीर हों या गरीब, उनके डेली यूज वाले आइटम कौन हैं। मिडल क्लास आइटम्स कौन से हैं यानी कि किसी के पास टीवी है, कार है, लेकिन वह बड़ा टीवी, बड़ी कार लेना चाहता है यानी एस्पिरेशनल आइटम्स।
इस तरह रीग्रुपिंग के लिए यूजर के नजरिए से गौर किया गया, न कि रेवेन्यू या ट्रेड के नजरिए से। हमने आम लोगों के लिहाज से सोचा। मिडल क्लास के लिहाज से सोचा, जो आगे बढ़ना चाहता है। किसानों के लिहाज से सोचा गया, जो हमारी इकॉनमी का बहुत अहम हिस्सा हैं। फिर एमएसएमई पर गौर किया गया, जो उपलब्ध कच्चे माल से उत्पादन करते हैं, लेकिन ऐसे कच्चे माल का भी उपयोग करते हैं, जिन पर इंटरनैशनल मार्केट में उतार-चढ़ाव का असर पड़ता है। फाइनल चीज देखी गई कि क्या इंडियन इकॉनमी में ऐसे अहम प्लेयर हैं, जिनकी राह एकोमोडेटिव टैक्स स्ट्रक्चर के जरिए आसान बनाई जा सकती है। इस तरह मैंने इन 5 पॉइंट्स के आधार पर रीग्रुपिंग की।
फिर मैं अधिकारियों से बार-बार सवाल करती रही कि किसी खास ग्रुप का टैक्स ट्रीटमेंट एक जैसा क्यों नहीं हो सकता। क्यों न कुछ चीजों को जीरो में ले जाया जाए? ब्यूरोक्रेसी की अपनी चिंताएं होती हैं, लेकिन नेता के रूप में काम करते वक्त हम सिर्फ पब्लिक को ध्यान में रखकर कदम उठाते हैं। इसलिए मैंने बार-बार सवाल किए। कहती रही कि समस्या नहीं, समाधान लेकर आएं। सॉल्यूशन टिकाऊ है या नहीं, क्या यह प्रावधान कोर्ट में सही साबित होगा। इस तरह एक-एक बिंदु पर मैंने गहराई से विचार किया।ईमानदारी से कहूं तो बहुत मेहनत हुई, लेकिन यह काम पूरा होने पर ऐसा लगा, जैसे मैंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स का एग्जाम सम्मानजनक तरीके से पास कर लिया। यह काम पूरा करने पर मुझे बहुत संतोष है। एक नई ऊर्जा महसूस हो रही है।
क्या रेट में बदलाव पर सवाल उठे?
मैंने किसी एक कैटिगरी में सेम रेट रखने के मुद्दे पर विचार किया। मैंने सवाल किया कि 12% रखने का क्या औचित्य है? तब देखा गया कि 67% रेवेन्यू 18% से आता है। हमने देखा कि क्या वहां ऐसे आइटम हैं, जिनको इसमें होना चाहिए। उनको हटाकर 5% में होना चाहिए। इसी तरह मैंने देखा कि 12% स्लैब से करीब 7% रेवेन्यू आता है। यहां से कुछ चीजों को 5 और 18% में डाला गया। काफी बड़ा हिस्सा 5% स्लैब में आ गया। इस पर किसी को ऐतराज नहीं हुआ। सबने सहमति जताई। यही वजह है कि आज 99% आइटम्स या तो जीरो या 5% या 18% में हैं।
इससे क्या फर्क पड़ेगा?
अब मेरिट और स्टैंडर्ड, दो रेट होंगे। इसी के बीच में करना होगा। आपको लग रहा है कि इसमें ज्यादा टैक्स ले सकते हैं तो 18% में रख दो और कम में आना है तो 5% में रख दो। इस तरह की जो प्रेडिक्टिबिलिटी आई है, यह जीएसटी के लिए बड़ी चीज होगी। कोई आइटम 40% में जाएगा ही नहीं क्योंकि जब तक वह डीमेरिट गुड्स न हो, तब तक ऐसा नहीं होगा। टोबैको में ही कुछ दूसरा आ रहा हो, तो जाएगा। इसमें बारगेन करने के लिए कुछ बचा नहीं है।
चैप्टराइजेशन का मामला तो ट्रेड से जुड़ी ग्रेडिंग के लिए है। किसी दूसरे देश के साथ अलाइन करने के लिए है, नहीं तो निर्यात में असर पड़ता है। उनके लिए काम की चीज है वह। जनता की जरूरत की चीज नहीं है। इसलिए मैंने पूरी चीज को बिल्कुल अलग नजरिए से देखा। इसमें काफी समय भी लगा। 1 फरवरी 2025 से मई के मध्य तक, मैंने इसे पूरा किया। तब मैंने सोचा कि पीएम को मैं पूरे कॉन्फिडेंस से बता सकती हूं कि इस तरह का प्रस्ताव मैंने क्यों दिया। मेरा फ्रेमवर्क तैयार है और उसका एक्सप्लैनेशन भी तैयार है। कौन सा आइटम कहा जाएगा, उसका खुद मैंने अध्ययन किया है। इस तरह प्रस्ताव आगे बढ़ा और मीटिंग में गया।
आपने नया इनकम टैक्स लॉ बनाया, डायरेक्ट टैक्स का बोझ घटाया और अब यह जीएसटी का काम पूरा किया। किसमें आपको सबसे ज्यादा संतुष्टि हुई?
सबमें संतोष मिला। 12 लाख रुपये की सालाना आमदनी पर टैक्स छूट देना भी चुनौती का काम था, लेकिन यह जीएसटी वाला काम ज्यादा चुनौतीपूर्ण था क्योंकि यह केवल भारत सरकार से जुड़ी बात नहीं थी। इसे मुझे जीएसटी काउंसिल में ले जाना था, जहां सभी राज्यों के वित्त मंत्री बैठते हैं। काम में भी ज्यादा चुनौती थी और पारित करने में भी ज्यादा चुनौती थी।
विपक्ष जीएसटी रेट के मुद्दे पर आपको कई बार निशाने पर लेता रहा है, ज्यादा टैक्स रेट की बात करता रहा है। काउंसिल में सभी राज्यों में सहमति बनाना कितना चुनौतीपूर्ण था क्योंकि कुछ राज्यों ने रेवेन्यू लॉस का मुद्दा भी उठाया था?
मुझे सबको कन्विंस करना ही था। मुश्किल यह थी कि सभी यह मान रहे थे कि यह पीपल फ्रेंडली कदम है, आम जनता के लिए है, गरीबों के हित में है। लेकिन आगे भी बढ़ना नहीं देना चाहते थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अगर जनता के हित में टैक्स में कटौती हो रही है तो फिर संकोच क्यों? आगे बढ़िए, साथ दीजिए। फिर मुझे यह भी समझ में आया कि वे एक धर्मसंकट की स्थिति में हैं। एक मंत्री लगातार कह रहे थे कि स्टेट के रेवेन्यू का क्या होगा? मैं मानती हूं कि धर्मसंकट है, लेकिन उससे बाहर निकलने की जिम्मेदारी भी हमारी है। ऐसा नहीं है कि केवल राज्यों के रेवेन्यू पर असर पड़ रहा है। केंद्र का रेवेन्यू भी है। क्या धर्मसंकट मेरे ऊपर नहीं है? यही धर्मसंकट इनकम टैक्स रिलीफ देने के समय भी था कि रेवेन्यू घट जाएगा। लेकिन जब पैसा जनता के हाथ में जाना है तो प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? हर पार्टी कहती है कि जनता के हित में काम करेंगे, यह स्कीम लाएंगे, वह स्कीम लाएंगे। मैंने कहा कि यहां तो स्कीम तैयार है। आप धर्मसंकट में ही उलझे रहेंगे तो समाधान कौन देगा? हालांकि मैं उनकी बात भी रखना चाहती हूं कि रेवेन्यू अगर निकट भविष्य में कम होता है तो वह एक इश्यू होगा, केवल आपका नहीं, मेरा भी। लेकिन क्या यह दलील सही होगी कदम रोके रखने के लिए?
केंद्र भरपाई करे, यह मसले पर आपकी क्या राय है?
रेवेन्यू कम होने के समय केंद्र सरकार भरपाई करे, ऐसा कहा गया। मैंने कहा कि मेरे पास यहां कोई अलग सूटकेस नहीं है। यहां तो सबका साझा है। सबकी ओर से रेवेन्यू आएगा, सबको मिलेगा। कम आएगा तो हम सबको उसको दोबारा भरपूर बनाने के लिए मेहनत करनी होगी। ऐसा नहीं होगा कि रेट कटौती हो गई, रेवेन्यू गिर जा रहा है तो केंद्र भरपाई करे। मैंने कहा कि यह सोच गलत है।
कोविड के समय 140 करोड़ लोगों का टीकाकरण हुआ। पीएम ने मुझे आदेश दिया था कि राज्यों से एक पैसा भी नहीं लेना है इसके लिए। जनता से एक पैसा लेना नहीं है। उसी साल से लेकर आज तक बिना रुकावट स्पेशल असिस्टेंस टु स्टेट्स फॉर कैपिटल इनवेस्टमेंट हो रही है। लगभग 8 लाख करोड़ रुपये गया है राज्यों को। इसको 50 साल तक वापस नहीं करना है, इंटरेस्ट नहीं भरना है।
इतना बड़ा बॉर्डर में संकट, वॉर, डिफेंस। इसकी कोई जिम्मेदारी राज्यों पर नहीं है। इसकी मैं शिकायत नहीं कर रही हूं, लेकिन उसका पूरा खर्च केंद्र पर है। जब राज्य कहीं न कहीं बोलते हैं कि केंद्र के लिए संसाधन जुटाने का तरीका अलग-अलग है, तो मेरी जिम्मेदारी भी यूनीक तरीके से हम पर भी है। मैं राज्यों से नहीं कहती कि पेट्रोल-डीजल से पैसा मुझे दो। अल्कोहल से हो रही कमाई में हिस्सा नहीं मांगती। इसलिए मैंने कहा कि समय आ गया है, कदम बढ़ा देना चाहिए।
क्या राजकोषीय लक्ष्यों पर आंच आ सकती है? क्या निर्यातकों के लिए कुछ करने की गुंजाइश बचेगी?
असर नहीं पड़ेगा। निर्यातकों के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं। पैकेज पर काम हो रहा है, जल्दी ही उसकी घोषणा भी होगी। उसमें इसके कारण असर नहीं पड़ेगा।
जीएसटी रेट में की गई कमी का फायदा ग्राहकों तक पहुंचे, कैसे सुनिश्चित होगा?
हम इंडस्ट्री से बात कर रहे हैं। कह रहे हैं कि वे इस रेट कट का फायदा लोगों को दें। नहीं करने की गुंजाइश ही नहीं है। फायदा देना ही होगा। हम उनसे इसका आश्वासन ले रहे हैं। उदाहरण के लिए, पब्लिक सेक्टर इंश्योरेंस कंपनियों ने कह दिया है कि वे फायदा लोगों को देंगी। प्राइवेट को भी इसी लाइन पर करना चाहिए। इसी तरह कई सेक्शंस में अलग-अलग मंत्रालयों से बात हो रही है। 22 सितंबर से पहले ही काम शुरू हो गया है और 22 सितंबर से मेरा पूरा ध्यान इस पर होगा।
ऑटो डीलर्स चिंता जता रहे हैं क्योंकि सेस अब खत्म हो गया है और वे एडिशनल टैक्स के अगेंस्ट इसे एडजस्ट नहीं कर सकते। इसी तरह इंश्योरेंस कंपनियों की भी चिंता है ITC को लेकर। क्या इसको रिव्यू करने का स्कोप है?
कुछ ट्रांजिशनल अरेंजमेंट किया जाएगा। बोर्ड इस पर काम कर रहा है। वे एक क्लैरिफिकेशन जारी करेंगे।
जीएसटी में किए गए सुधारों से ग्रोथ और इंफ्लेशन पर इस कदम का क्या असर पड़ेगा, खासतौर से दुनियाभर में जो हो रहा है, उसको देखते हुए?
हमने वैश्विक स्थिति के बारे में सोचकर यह काम नहीं किया है। यह भी नहीं है कि टैरिफ की वजह से बहुत दबाव है, इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं। यह काम मैं पिछले करीब 8 महीनों से बहुत सक्रियता से कर रही थी। उससे पहले मंत्रियों का समूह डेढ़ साल से कर रहा था। एक समय आना ही था कि जीएसटी से हमने जो सबक सीखा, उसके आधार पर इसका एक नया वर्जन तैयार किया जाए। तो अभी कर रहे हैं। न्यू एज जीएसटी करना ही था। यह अमेरिकी टैरिफ के चलते नहीं हुआ है। रही इन्फ्लेशन, तो उसको कम करना आवश्यक है, इसलिए जीएसटी का काम तुरंत करो, ऐसा भी नहीं है। हां, यह जरूर है कि इसके चलते महंगाई पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। वैसे महंगाई पहले ही बहुत कम हो चुकी है। इन्फ्लेशन को नियंत्रण में रखने में इसका काफी रोल होगा।
क्या प्राइवेट इनवेस्टमेंट में रफ्तार आएगी?
डिमांड बढ़ने और कंजम्पशन बढ़ने पर मौजूदा उत्पादन क्षमता को बढ़ाना होगा। नया इनवेस्टमेंट आएगा। इससे एक बहुत अच्छा साइकल शुरू होगा इकॉनमी के लिए। कंजम्पशन बढ़ने से इनवेस्टमेट बढ़ेगा, इसके चलते ज्यादा जॉब्स के मौके बनेंगे, लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ेगी। इस तरह साइकल चलता रहेगा।
कांग्रेस कह रही है कि वह लंबे समय से इसकी मांग कर रही थी और अब जाकर सरकार ने ध्यान दिया है। आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
उन्होंने प्रेस नोट ही देख लिया होता तो सब समझ में आ गया होता। उधर से कोई एक बात बोल रहा है तो कोई दूसरी बात। जो लोग इसे गब्बर सिंह टैक्स कहते थे, वे अब बोल रहे हैं कि यह सिंगल टैक्स नहीं है, वन नेशन वन टैक्स नहीं है। और जो दूसरे वित्त मंत्री रह चुके हैं, वह कह रहे हैं कि अच्छा तो हुआ है, लेकिन देर से हुआ। दरअसल बात यह समझने की है कि 2017 में रेट कैसे तय हुए। तब यह देखा गया कि राज्यों के एक्साइज में, वैट में जो भी हो, उसमें एक आइटम के लिए कौन सा रेट है। किसी का रेट 7% में था, तो हमने उसे 5% में लिया, 12% में नहीं रखा। इस तरह अगर कुछ आइटम पर 10% टैक्स था तो उसे 12% में ले गए। तो काम इस आधार पर किया गया कि राज्यों में एक आइटम के लिए अलग-अलग रूप में रेट थे, तो हमने उसे सबसे नजदीकी रेट में रखा, चाहे 5 हो, 12, 18 हो या 28 में। ये रैंडम नंबर नहीं थे। ये सब स्टेट्स से निकले हुए नंबर को जहां फिट करना था, वहां किया क्योंकि शुरुआती चरण था। अब हमने यूजर के लिहाज से सभी हाउसहोल्ड आइटम्स को रेशनलाइज किया और एक ही कैटिगरी में रखा है। वह भी समझ में नहीं आ रहा उनको। इन आठ वर्षों में हमने देखा कि क्लासिफिकेशन के चलते समस्या बढ़ रही है। इसको दूर किया गया है। उन लोगों को यह बात भी समझ नहीं आ रही है। भारत को बेहतर विपक्ष की जरूरत है। जो जनता को समझाने लायक भाषा में सच बोले, न कि गुमराह करे।
ग्लोबल रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग अपग्रेड की है, लेकिन कुछ लोगों ने डेड इकॉनमी कहा है। इसको कैसे देख रही हैं?
मुझे किसी बाहरी व्यक्ति के कहे की कोई चिंता नहीं है, चाहे वह किसी राष्ट्र का प्रमुख हो या पीएम हो या प्रेसिडेंट का एडवाइजर हो। मैं बहुत दुखी हूं इस बात से कि भारत का कोई नागरिक उसी भाषा को अपनाकर गलत आरोप लगाए। यह तो भारत के लोगों का अपमान है। ऐसे लोगों को विदेश के लोगों को जवाब देना चाहिए कि हम तो दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली इकॉनमी हैं। तीसरे स्थान पर पहुंचने वाली इकॉनमी हैं। 50 बिलियन का ट्रेड सरप्लस है। विपक्ष को सरकार के लिए नहीं, तो जनता के लिए तो बोलना चाहिए, विदेश को मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए कि डेड इकॉनमी कैसे बोल रहे हो? कहीं भी देश में पूछिए कि क्या डेड इकॉनमी है। अगर ऐसा है तो क्या लोग दुकान बंद करके चले गए हैं। विदेश के लोगों के बोलने से मुझे दुख नहीं है। हमारे अपनों के ऐसा बोलने से दुख है।
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