पटना: केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान दलित आइकॉन की छवि से बाहर निकलने को आतुर दिख रहे हैं। यूं तो चिराग पासवान खुद को सर्व समाज का नेता के रूप में स्थापित करने के लिए लंबे समय से प्रयासरत हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसा किया है जिससे क्लियर मैसेस मिल रहा है कि वह दलित आइकॉन की छवि से उकताहट फील कर रहे हैं।
चिराग पासवान का माथे पर तिलक, हाथों में कलावा के क्या हैं संकेत
सैकड़ो साल तक भारत में दलितों को जिस छुआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ा उसके चलते आजादी के बाद इस समाज के लोग ऊंची जाति के लोगों से दूरी बनाकर रखना पसंद करते हैं। खासकर पूजा पाठ और धार्मिक मसले पर देश के दलितों का एक बड़ा तबका सामान्य हिंदू पूजा पद्धति से खुद को अलग रखते हैं।
यही वजह है कि देश दलितों का एक बड़ा वर्ग हिंदुओं से जुड़ा तीज-त्योहार और पूजा-पाठ पद्धति को नहीं अपनाते हैं। कुछ दलित तो हिंदू देवी देवताओं की भी पूजा-पाठ नहीं करते हैं। अपने समाज से उलट चिराग पासवान सार्वजनिक जीवन में हमेशा माथे पर तिलक लागाए, हाथों कलावा बांधे दिखते हैं। इतना ही नहीं, वह आए दिन हिंदूओं से प्रसिद्ध मंदिरों और मठों में पूजा पाठ करने के फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। पिछले दिनों जब चिराग ने प्रसिद्ध महाकाल मंदिर में पूजा करने के बाद तस्वीरें शेयर की थी तब दलित समाज के कई नेताओं ने उन्हें निशाने पर लिया था। इतना ही नहीं, चिराग घरों में सेलिब्रेट होने वाले तीज-त्योहारों की तस्वीरें और वीडियो भी बड़े शान से सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं।
खुद को दलित नेता कहलाने से चिढ़ते हैं चिराग पासवान
चिराग पासवान को जब कोई पत्रकार दलित नेता कहकर सवाल पूछता है तो वहे चिढ़ जाते हैं। यहां तक कि वह इसपर कई बार एतराज भी जता चुके हैं। हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उनसे पूछा गया- 'बिहार में जब दलित चेहरा चुनने की बात आएगी और आपके बदले किसी और दलित चेहरे को चुना गया तो क्या आपको लगता है कि आपकी उम्मीदों को झटका लगेगा?'
इस सवाल के जवाब में चिराग पासवान कहते हैं 'मैं दुखी इस प्रश्न से हो रहा हूं, मैं बहुत विनम्रता से कह रहा हूं, क्योंकि आपने अपने प्रश्नों में मेरे आगे इस शब्द को जोड़ा कि दलित, दलित, दलित। मेरी लड़ाई ही इस बात को लेकर है कि मैं जब बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट की बात करता हूं तो वह 14 करोड़ बिहारियों की बात होती है।'
चिराग ने आगे कहा, 'मुझे तकलीफ इस बात की होती है कि मैं दिल्ली में पला-बढ़ा। पढ़े-लिखे परिवार से आता हूं मुंबई में काम किया, लेकिन मैंने कहीं भी इतनी कड़ी जाति व्यवस्था नहीं देखता हूं। जब मैं करीब 10-12 साल पहले राजनीति के लिए बिहार आया तो यहां मुझे भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, महादलित, मुस्लिम मिलते थे, लेकिन कोई बिहारी नहीं मिला। आपकी जाति ही आपकी पहचान बनकर रह गई है। मैं चाहता हूं कि मेरे राज्य में मेरी पहचान केवल बिहारी की हो। मैंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर युवा दलित बिहारी नहीं लिखा। मैंने तो सिर्फ युवा बिहारी लिखा।'
चिराग पासवान के इस जवाब में साफ तौर से झलक रहा है कि वह दलित कहलाने पर चिढ़ते हैं। वह खुद की छवि पूरे बिहार के नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं।
सामान्य सीट से चुनाव लड़ने की अटकलों के पीछे चिराग की राजनीति
इसी बीच बिहार में यह चर्चा जोरों पर है कि चिराग पासवान अब बिहार की राजनीति करने की तैयारी में हैं। इसके लिए इस बार बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, यह भी चर्चा है कि चिराग पासवान किसी सामान्य सीट से बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।
खुद से दलित नेता की छाप क्यों मिटाना चाहते हैं चिराग?
चिराग जिस पासवान जाति से आते हैं उसे वोटबैंक के हिसाब से देखें तो बिहार में इनकी आबादी 5.31 फीसदी यानी करीब 69 लाख 43 हजार है। चिराग भली-भांति जानते समझते हैं कि इस वोटबैंक के सहारे वह बिहार में आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं पा सकते हैं।
चिराग देख चुके हैं कि बिहार में 2.88 फीसदी वोटबैंक कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार इसलिए बिहार में प्रासंगिक बने हैं क्योंकि उन्होंने अपने ऊपर से जाति का नेता होने का ठप्पा काफी हद तक हटा लिया है। नीतीश ने दलितों की कुछ जातियों को साथ लेकर महादलित बनाया। इसके अलावा उन्होंने पिछड़ा और अतिपिछड़ा समाज की कई जाति के लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई। इसके अलावा विकास पुरुष की छवि के चलते नीतीश की स्वीकार्यता ऊंची जाति के लोगों के बीच भी बनी है।
ठीक उसी तरह लालू प्रसाद और उनके परिवार को यादव 14.27 फीसदी और मुस्लिम 14.2 फीसदी का अधिकतम सपोर्ट मिलता है। इसके बावजूद तेजस्वी यादव सत्ता हासिल नहीं कर पा रहे हैं। 1990 से 2000 तक ऊंची जाति से भी लालू परिवार को बड़ा सपोर्ट मिलता रहा, जिसके चलते वो 15 साल तक सत्ता में बने रहे। जब से यादव और मुस्लिमों के अलावा दूसरी जाति के लोगों का भरोसा उनसे उठने लगा है तब से उनकी पार्टी सत्ता से बाहर है। हालांकि तेजस्वी यादव 'BAAP' (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और पिछड़ा) जैसे फॉर्म्यूले पर कार्य कर जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
पिता रामविलास से एक कदम आगे निकलने के प्रयास में चिराग
चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान भी काफी हद तक खुद को दलित नेता की छवि से बाहर निकालने की कोशिश करते रहे। एक तरफ जहां उत्तर प्रदेश में मायावती जैसी दलित नेता सीधे-सीधे मंचों से ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, बनिया को लेकन आपत्तिजनक नारे लगवाती। वहीं रामविलास पासवान जीवन भर भले ही दलित उत्थान के लिए आवाज उठाते रहे, लेकिन कभी भी किसी जाति विशेष को लेकर टिप्प्णी नहीं की।
इसके बावजूद रामविलास पासवान की छवि दलित नेता के रूप में होने के चलते बिहार के राज्य की राजनीति में वह खास सफल नहीं हो सके। उदाहरण के तौर पर केवल 2005 के फरवरी में हुए चुनाव पर नजर डालें तो चिराग पासवान ने अपनी पार्टी में दलितों के साथ भूमिहारों को अच्छी खासी संख्या में टिकट बांटे थे, जिसके चलते उनकी पार्टी एलजेपी ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 29 सीटें जीती थी।
चिराग पिता रामविलास पासवान से एक कदम आगे बढ़कर खुद को सर्व समाज के नेता के रूप में स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं। वह समझते हैं कि अगर वह इस प्रयास में सफल होते हैं तो बिहार में राजनीति में वह लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार या बीजेपी जैसी ताकतों को चुनौती देने के काबिल बन सकते हैं।
चिराग पासवान का माथे पर तिलक, हाथों में कलावा के क्या हैं संकेत
सैकड़ो साल तक भारत में दलितों को जिस छुआछूत और भेदभाव का सामना करना पड़ा उसके चलते आजादी के बाद इस समाज के लोग ऊंची जाति के लोगों से दूरी बनाकर रखना पसंद करते हैं। खासकर पूजा पाठ और धार्मिक मसले पर देश के दलितों का एक बड़ा तबका सामान्य हिंदू पूजा पद्धति से खुद को अलग रखते हैं।
यही वजह है कि देश दलितों का एक बड़ा वर्ग हिंदुओं से जुड़ा तीज-त्योहार और पूजा-पाठ पद्धति को नहीं अपनाते हैं। कुछ दलित तो हिंदू देवी देवताओं की भी पूजा-पाठ नहीं करते हैं। अपने समाज से उलट चिराग पासवान सार्वजनिक जीवन में हमेशा माथे पर तिलक लागाए, हाथों कलावा बांधे दिखते हैं। इतना ही नहीं, वह आए दिन हिंदूओं से प्रसिद्ध मंदिरों और मठों में पूजा पाठ करने के फोटो और वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करते हैं। पिछले दिनों जब चिराग ने प्रसिद्ध महाकाल मंदिर में पूजा करने के बाद तस्वीरें शेयर की थी तब दलित समाज के कई नेताओं ने उन्हें निशाने पर लिया था। इतना ही नहीं, चिराग घरों में सेलिब्रेट होने वाले तीज-त्योहारों की तस्वीरें और वीडियो भी बड़े शान से सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं।
खुद को दलित नेता कहलाने से चिढ़ते हैं चिराग पासवान
चिराग पासवान को जब कोई पत्रकार दलित नेता कहकर सवाल पूछता है तो वहे चिढ़ जाते हैं। यहां तक कि वह इसपर कई बार एतराज भी जता चुके हैं। हाल ही में एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में उनसे पूछा गया- 'बिहार में जब दलित चेहरा चुनने की बात आएगी और आपके बदले किसी और दलित चेहरे को चुना गया तो क्या आपको लगता है कि आपकी उम्मीदों को झटका लगेगा?'
इस सवाल के जवाब में चिराग पासवान कहते हैं 'मैं दुखी इस प्रश्न से हो रहा हूं, मैं बहुत विनम्रता से कह रहा हूं, क्योंकि आपने अपने प्रश्नों में मेरे आगे इस शब्द को जोड़ा कि दलित, दलित, दलित। मेरी लड़ाई ही इस बात को लेकर है कि मैं जब बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट की बात करता हूं तो वह 14 करोड़ बिहारियों की बात होती है।'
चिराग ने आगे कहा, 'मुझे तकलीफ इस बात की होती है कि मैं दिल्ली में पला-बढ़ा। पढ़े-लिखे परिवार से आता हूं मुंबई में काम किया, लेकिन मैंने कहीं भी इतनी कड़ी जाति व्यवस्था नहीं देखता हूं। जब मैं करीब 10-12 साल पहले राजनीति के लिए बिहार आया तो यहां मुझे भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, महादलित, मुस्लिम मिलते थे, लेकिन कोई बिहारी नहीं मिला। आपकी जाति ही आपकी पहचान बनकर रह गई है। मैं चाहता हूं कि मेरे राज्य में मेरी पहचान केवल बिहारी की हो। मैंने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर युवा दलित बिहारी नहीं लिखा। मैंने तो सिर्फ युवा बिहारी लिखा।'
चिराग पासवान के इस जवाब में साफ तौर से झलक रहा है कि वह दलित कहलाने पर चिढ़ते हैं। वह खुद की छवि पूरे बिहार के नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं।
सामान्य सीट से चुनाव लड़ने की अटकलों के पीछे चिराग की राजनीति
इसी बीच बिहार में यह चर्चा जोरों पर है कि चिराग पासवान अब बिहार की राजनीति करने की तैयारी में हैं। इसके लिए इस बार बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इतना ही नहीं, यह भी चर्चा है कि चिराग पासवान किसी सामान्य सीट से बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।
खुद से दलित नेता की छाप क्यों मिटाना चाहते हैं चिराग?
चिराग जिस पासवान जाति से आते हैं उसे वोटबैंक के हिसाब से देखें तो बिहार में इनकी आबादी 5.31 फीसदी यानी करीब 69 लाख 43 हजार है। चिराग भली-भांति जानते समझते हैं कि इस वोटबैंक के सहारे वह बिहार में आसानी से मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं पा सकते हैं।
चिराग देख चुके हैं कि बिहार में 2.88 फीसदी वोटबैंक कुर्मी जाति से आने वाले नीतीश कुमार इसलिए बिहार में प्रासंगिक बने हैं क्योंकि उन्होंने अपने ऊपर से जाति का नेता होने का ठप्पा काफी हद तक हटा लिया है। नीतीश ने दलितों की कुछ जातियों को साथ लेकर महादलित बनाया। इसके अलावा उन्होंने पिछड़ा और अतिपिछड़ा समाज की कई जाति के लोगों के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई। इसके अलावा विकास पुरुष की छवि के चलते नीतीश की स्वीकार्यता ऊंची जाति के लोगों के बीच भी बनी है।
ठीक उसी तरह लालू प्रसाद और उनके परिवार को यादव 14.27 फीसदी और मुस्लिम 14.2 फीसदी का अधिकतम सपोर्ट मिलता है। इसके बावजूद तेजस्वी यादव सत्ता हासिल नहीं कर पा रहे हैं। 1990 से 2000 तक ऊंची जाति से भी लालू परिवार को बड़ा सपोर्ट मिलता रहा, जिसके चलते वो 15 साल तक सत्ता में बने रहे। जब से यादव और मुस्लिमों के अलावा दूसरी जाति के लोगों का भरोसा उनसे उठने लगा है तब से उनकी पार्टी सत्ता से बाहर है। हालांकि तेजस्वी यादव 'BAAP' (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और पिछड़ा) जैसे फॉर्म्यूले पर कार्य कर जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
पिता रामविलास से एक कदम आगे निकलने के प्रयास में चिराग
चिराग पासवान के पिता रामविलास पासवान भी काफी हद तक खुद को दलित नेता की छवि से बाहर निकालने की कोशिश करते रहे। एक तरफ जहां उत्तर प्रदेश में मायावती जैसी दलित नेता सीधे-सीधे मंचों से ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, बनिया को लेकन आपत्तिजनक नारे लगवाती। वहीं रामविलास पासवान जीवन भर भले ही दलित उत्थान के लिए आवाज उठाते रहे, लेकिन कभी भी किसी जाति विशेष को लेकर टिप्प्णी नहीं की।
इसके बावजूद रामविलास पासवान की छवि दलित नेता के रूप में होने के चलते बिहार के राज्य की राजनीति में वह खास सफल नहीं हो सके। उदाहरण के तौर पर केवल 2005 के फरवरी में हुए चुनाव पर नजर डालें तो चिराग पासवान ने अपनी पार्टी में दलितों के साथ भूमिहारों को अच्छी खासी संख्या में टिकट बांटे थे, जिसके चलते उनकी पार्टी एलजेपी ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 29 सीटें जीती थी।
चिराग पिता रामविलास पासवान से एक कदम आगे बढ़कर खुद को सर्व समाज के नेता के रूप में स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते हैं। वह समझते हैं कि अगर वह इस प्रयास में सफल होते हैं तो बिहार में राजनीति में वह लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार या बीजेपी जैसी ताकतों को चुनौती देने के काबिल बन सकते हैं।
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