लंदन: पाकिस्तान और सऊदी अरब ने बुधवार को रियाद में एक रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस सौदे पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ, सेना प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर और सऊदी क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने हस्ताक्षर किए। यह समझौता 9 सितंबर को कतर पर हुए इजरायली हवाई हमले के लगभग 10 दिन बाद हुआ, जिसमें हमास नेताओं को निशाना बनाया गया। कई रक्षा विशेषज्ञों ने दावा किया कि इस समझौते से भारत और इजरायल को खतरा बढ़ गया है। हालांकि, पाकिस्तानी की रहने वाली किंग्स कॉलेज लंदन में डिपार्टमेंट ऑफ वार स्टडीज में सीनियर फेलो आयशा सिद्दीका ने बताया है कि सऊदी अरब ने यह सौदा ईरान को ध्यान में रखते हुए किया है। उन्होंने यह भी कहा कि इस सौदे को अमेरिका का समर्थन प्राप्त है।
दि प्रिंट में लिखे एक लेख में आयशा सिद्धीका ने कहा, इस समझौते के समय ने पाकिस्तान में दो व्यापक प्रभाव पैदा किए हैं। पहला यह कि इजरायली आक्रमण से भयभीत और अपने सहयोगियों की सुरक्षा के लिए अमेरिका पर भरोसा न करने वाला सऊदी अरब सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की ओर देखने लगा है। और दूसरा, यह कि यह समझौता एक व्यापक सुरक्षा समझौते की ओर ले जा सकता है जिसमें पाकिस्तान मध्य पूर्व में शांति का गारंटर बन सकता है। ऐसी धारणाएं, निश्चित रूप से, भारत के साथ हाल ही में युद्ध की स्थिति के बाद, खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के "पांच जेट" मार गिराए जाने के बयान के बाद, पाकिस्तान के आत्मविश्वास के अनुमानों पर आधारित हैं।
उन्होंने कहा कि तीन बातें ध्यान रखने योग्य हैं। पहला, पाकिस्तान दशकों से सऊदी अरब की मदद करता रहा है। दूसरा, यह वास्तव में इजरायल का नहीं, बल्कि ईरान का मामला है। और तीसरा, इस कदम को संभवत अमेरिका की मौन स्वीकृति प्राप्त है। उनके इस बयान का आधार यह भी है कि अमेरिका कभी भी ऐसा नहीं करेगा, जिसका नकारात्मक असर इजरायल पर पड़े। अमेरिका और इजरायल पक्के दोस्त हैं। कतर भी अमेरिका का खास है। इसके बावजूद अमेरिका ने इजरायली हमले को लेकर कतर का समर्थन नहीं किया। यह बताता है कि अगर सऊदी अरब अकेले अपने दम पर यह समझौता करता तो अमेरिका जरूर इसमें अड़ंगा लगाता।
सऊदी पाकिस्तान में पुराने संबंध
इस समझौते में बहुत कुछ नया नहीं है, जैसा पाकिस्तानी राजनेता ढोल पीट रहे हैं। पाकिस्तान 1980 के दशक से सऊदी अरब को सैन्य सुरक्षा प्रदान कर रहा है। इसमें सिर्फ नया शब्द रणनीतिक है, जो कथित तौर पर परमाणु सुरक्षा से जुड़ा है। यह कुछ ऐसा है, जिसे सऊदी अरब लंबे समय से पाकिस्तान से चाहता रहा है। दरअसल, पाकिस्तान ने 1960 के दशक से ही सऊदी राजशाही को सुरक्षित रखा है। ब्रिटिश राष्ट्रीय अभिलेखागार के गोपनीय आंकड़ों के अनुसार, एक दौरे पर आए जनरल शेर अली खान पटौदी ने सऊदी अरब को उनके तत्कालीन मिस्र के प्रशिक्षकों के अहंकार से अवगत कराया और उन्हें पाकिस्तान की सेना पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद जनरल अयूब खान के नेतृत्व में एक छोटी टुकड़ी भेजी गई, जिन्हें सऊदी अरब ने अपनी टुकड़ी से अहमदिया अधिकारियों को वापस बुलाने के लिए कहा, जिसका उन्होंने पालन किया।
मक्का में पाकिस्तानी सेना ने दिया सऊदी का साथ
1979 में मक्का की घेराबंदी के साथ, पाकिस्तान की सैन्य उपस्थिति में वृद्धि की आवश्यकता और बढ़ गई। इस वहाबी घरेलू विद्रोह के दौरान, सऊदी अरब के एक समूह ने सत्तारूढ़ शासन को बदलने के इरादे से पवित्र मस्जिद पर जबरन कब्जा कर लिया। यह एक बड़ी घटना थी जिसने सऊदी राजशाही को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया और आज भी उसे परेशान करती है। पवित्र काबा को मुक्त कराने के अंतिम अभियान में फ्रांसीसियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन बाद में कई पाकिस्तानियों ने दावा किया कि उनके देश की सेना ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसे इसलिए भी सच माना गया क्योंकि सऊदी अरब मक्का में गैर-मुस्लिमों की भागीदारी को उजागर करने से हिचकिचा रहा था।
ईरान के परमाणु हथियारों से सऊदी अरब को डर
सऊदी अरब ईरान के परमाणु हथियारों को इजरायल की तरह अपने अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देखता है। सऊदी अरब सुन्नी इस्लाम का नेता है, जबकि ईरान शिया इस्लाम का। ईरान तेजी से परमाणु हथियारों के विकास पर काम कर रहा है। ऐसी आशंका है कि उसके पास वर्तमान में कई परमाणु बम बनाने लायक समृद्ध यूरेनियम मौजूद हैं। हालांकि, हाल के इजरायल और अमेरिकी हमलों के कारण उसके परमाणु कार्यक्रम को भारी नुकसान पहुंचा है। ऐसे में ईरान के परमाणु हथियारों से डरे मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद ने एक दूसरे सुन्नी देश पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को पाने के लिए यह रक्षा समझौता किया है।
दि प्रिंट में लिखे एक लेख में आयशा सिद्धीका ने कहा, इस समझौते के समय ने पाकिस्तान में दो व्यापक प्रभाव पैदा किए हैं। पहला यह कि इजरायली आक्रमण से भयभीत और अपने सहयोगियों की सुरक्षा के लिए अमेरिका पर भरोसा न करने वाला सऊदी अरब सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की ओर देखने लगा है। और दूसरा, यह कि यह समझौता एक व्यापक सुरक्षा समझौते की ओर ले जा सकता है जिसमें पाकिस्तान मध्य पूर्व में शांति का गारंटर बन सकता है। ऐसी धारणाएं, निश्चित रूप से, भारत के साथ हाल ही में युद्ध की स्थिति के बाद, खासकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के "पांच जेट" मार गिराए जाने के बयान के बाद, पाकिस्तान के आत्मविश्वास के अनुमानों पर आधारित हैं।
उन्होंने कहा कि तीन बातें ध्यान रखने योग्य हैं। पहला, पाकिस्तान दशकों से सऊदी अरब की मदद करता रहा है। दूसरा, यह वास्तव में इजरायल का नहीं, बल्कि ईरान का मामला है। और तीसरा, इस कदम को संभवत अमेरिका की मौन स्वीकृति प्राप्त है। उनके इस बयान का आधार यह भी है कि अमेरिका कभी भी ऐसा नहीं करेगा, जिसका नकारात्मक असर इजरायल पर पड़े। अमेरिका और इजरायल पक्के दोस्त हैं। कतर भी अमेरिका का खास है। इसके बावजूद अमेरिका ने इजरायली हमले को लेकर कतर का समर्थन नहीं किया। यह बताता है कि अगर सऊदी अरब अकेले अपने दम पर यह समझौता करता तो अमेरिका जरूर इसमें अड़ंगा लगाता।
सऊदी पाकिस्तान में पुराने संबंध
इस समझौते में बहुत कुछ नया नहीं है, जैसा पाकिस्तानी राजनेता ढोल पीट रहे हैं। पाकिस्तान 1980 के दशक से सऊदी अरब को सैन्य सुरक्षा प्रदान कर रहा है। इसमें सिर्फ नया शब्द रणनीतिक है, जो कथित तौर पर परमाणु सुरक्षा से जुड़ा है। यह कुछ ऐसा है, जिसे सऊदी अरब लंबे समय से पाकिस्तान से चाहता रहा है। दरअसल, पाकिस्तान ने 1960 के दशक से ही सऊदी राजशाही को सुरक्षित रखा है। ब्रिटिश राष्ट्रीय अभिलेखागार के गोपनीय आंकड़ों के अनुसार, एक दौरे पर आए जनरल शेर अली खान पटौदी ने सऊदी अरब को उनके तत्कालीन मिस्र के प्रशिक्षकों के अहंकार से अवगत कराया और उन्हें पाकिस्तान की सेना पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद जनरल अयूब खान के नेतृत्व में एक छोटी टुकड़ी भेजी गई, जिन्हें सऊदी अरब ने अपनी टुकड़ी से अहमदिया अधिकारियों को वापस बुलाने के लिए कहा, जिसका उन्होंने पालन किया।
मक्का में पाकिस्तानी सेना ने दिया सऊदी का साथ
1979 में मक्का की घेराबंदी के साथ, पाकिस्तान की सैन्य उपस्थिति में वृद्धि की आवश्यकता और बढ़ गई। इस वहाबी घरेलू विद्रोह के दौरान, सऊदी अरब के एक समूह ने सत्तारूढ़ शासन को बदलने के इरादे से पवित्र मस्जिद पर जबरन कब्जा कर लिया। यह एक बड़ी घटना थी जिसने सऊदी राजशाही को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया और आज भी उसे परेशान करती है। पवित्र काबा को मुक्त कराने के अंतिम अभियान में फ्रांसीसियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन बाद में कई पाकिस्तानियों ने दावा किया कि उनके देश की सेना ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसे इसलिए भी सच माना गया क्योंकि सऊदी अरब मक्का में गैर-मुस्लिमों की भागीदारी को उजागर करने से हिचकिचा रहा था।
ईरान के परमाणु हथियारों से सऊदी अरब को डर
सऊदी अरब ईरान के परमाणु हथियारों को इजरायल की तरह अपने अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देखता है। सऊदी अरब सुन्नी इस्लाम का नेता है, जबकि ईरान शिया इस्लाम का। ईरान तेजी से परमाणु हथियारों के विकास पर काम कर रहा है। ऐसी आशंका है कि उसके पास वर्तमान में कई परमाणु बम बनाने लायक समृद्ध यूरेनियम मौजूद हैं। हालांकि, हाल के इजरायल और अमेरिकी हमलों के कारण उसके परमाणु कार्यक्रम को भारी नुकसान पहुंचा है। ऐसे में ईरान के परमाणु हथियारों से डरे मोहम्मद बिन सलमान अल सऊद ने एक दूसरे सुन्नी देश पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को पाने के लिए यह रक्षा समझौता किया है।
You may also like
रात डेढ़ बजे जयपुर के आसमान में दिखा 'कोई मिल गया' फिल्म जैसा नजारा, रास्यमयी घटना सोशल मीडिया पर वायरल
एच-1बी वीज़ा की फ़ीस बढ़ने से भारतीय लोगों का कितना फ़ायदा, कितना नुक़सान?
Litton Das ने रचा इतिहास, शाकिब अल हसन को पछाड़ बने बांग्लादेश के टी20 में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाज
होंडा एक्टिवा ई बनाम टीवीएस आई-क्यूब और बजाज चेतक: कौन सा ई-स्कूटर है बेहतर?
कांग्रेस पार्टी अपनी नीतियों के कारण वजूद खो रही : सौरभ बहुगुणा