पड़ोसी देशों के साथ संबंधों में सुधार की आवश्यकता है, लेकिन यह जानना भी आवश्यक है कि यह किस आधार पर संभव है। इसलिए निर्णय लेते समय व्यापक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता का ध्यान रखना जरूरी है।
सूत्रों के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए चीन की यात्रा करेंगे। यह घटना अपने आप में महत्वपूर्ण है। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष कजाखस्तान में आयोजित एससीओ समिट में मोदी शामिल नहीं हुए थे। इसलिए यह कहना गलत होगा कि एससीओ एक बहुपक्षीय मंच है और इसके शिखर सम्मेलन में भाग लेने को भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए। मोदी की चीन यात्रा को निश्चित रूप से भारत-चीन संबंधों के सामान्य होने के संकेत के रूप में देखा जाएगा, लेकिन इस प्रक्रिया में कई जटिलताएँ भी हैं।
भारत सरकार ने कभी यह स्वीकार नहीं किया कि 2020 में चीन ने भारतीय भूमि पर कब्जा किया, फिर भी वह यह कहती रही है कि जब तक सीमा पर सैनिकों की संख्या कम नहीं होती, तब तक संबंधों में सुधार संभव नहीं है। स्पष्ट है कि डी-एस्केलेशन नहीं हुआ है और चीन की मंशा भी संदिग्ध है। इसके अलावा, पाकिस्तान को चीन का निरंतर समर्थन भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। मोदी की यात्रा की खबर के साथ ही यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या भारत रूस और चीन के साथ त्रिपक्षीय (आरआईसी फोरम) वार्ता को फिर से शुरू करने पर सहमत होगा? रूस इस दिशा में दबाव बना रहा है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि जिस दिन मोदी की चीन यात्रा की खबर आई, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल मास्को में थे।
यदि आरआईसी फोरम को पुनर्जीवित किया जाता है, तो भारत और चीन के बीच उच्चस्तरीय संवाद फिर से स्थापित होगा। जब संवाद टूट गया था, तब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भारत, चीन और पाकिस्तान के बीच त्रिकोणीय शांति समझौते पर जोर दिया था। अब जब उन्होंने यह प्रस्ताव फिर से उठाया है, तो भारत की प्रतिक्रिया क्या होगी? ये सभी प्रश्न आपस में जुड़े हुए हैं और इसलिए स्थिति जटिल है। पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंधों की आवश्यकता है, लेकिन यह जानना भी आवश्यक है कि यह किन शर्तों पर संभव है। इसलिए निर्णय लेते समय व्यापक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता का ध्यान रखना जरूरी है। भारत को पहले ही तात्कालिक निर्णयों की भारी कीमत चुकानी पड़ी है।
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